SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीयोऽङ्कः राजा - वयस्य! अस्मास्वनुग्रहेण राजपुत्र्येयं प्रेषिता, तदेतामवज्ञातुं नार्हसि । विदूषकः - ( १ ) भो ! न मए एदाए अवन्ना कीरदि, किन्तु अप्पणी रक्खा। राजा - ( सरोषमिव) सर्वथा परिहासावसरं न वेत्सि । विदूषकः - (निःश्वस्य) (२) जदि मए मुद्देण कावि फलसिद्धी भोदि, ता भोदु, इह ज्जेव चिट्ठिस्सं । ५९ राजा - लम्बस्तनि! इदमासनमास्यताम् । विदूषकः - ( ३ ) भोदी लंबत्थणीए दुब्बलं खु एदं आसणं । ता तुमए सावहाणाए 'उवविसियव्वं । राजा - मित्र ! हमारे ऊपर अनुग्रह करके ही दमयन्ती ने इसको भेजा है, अतः तुम्हें इसकी अवमानना नहीं करनी चाहिए । विदूषक - हे राजन्! मैं इसकी अवमानना नहीं करता हूँ, अपितु अपनी रक्षा के लिए | राजा - (क्रोधित हुए की तरह) निश्चित रूप से परिहास के समय को नहीं जानते हो विदूषक - (साँस लेकर) यदि मेरे मरने से तुम्हारे किसी कार्य की सिद्धि हो, तो होवे, यहीं रहूँगा । राजा - लम्बस्तनि ! इस आसन पर बैठिये । विदूषक - हे लम्बस्तनि! यह आसन बहुत ही कमजोर है इसलिए तुम्हें सावधानीपूर्वक आसन पर बैठना चाहिए । (१) भोः ! न मयैतस्या अवज्ञा क्रियते किन्त्वात्मनो रक्षा | (२) यदि मया मृतेन काऽपि फलसिद्धिर्भवति, तदा भवतु, इहैव स्थास्यामि । (३) भगवति! लम्बस्तन्या दुर्बलं खल्वेतदासनम्, ततस्त्वया सावधानम् उपवेष्टव्यम् । १. क. एवं। २ क. उववसि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy