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नलविलासे
शेखर:- यदादिशति देवः (इत्यभिधाय निष्क्रान्तः )
(ततः प्रविशति कटितटं नर्तयन्ती लम्बस्तनी) राजा - ( विलोक्य) आकृत्या कृत्येव लक्ष्यते ।
कलहंस:- (अपवार्य) न केवलमाकृत्या कर्मणाऽपीयं कृत्या | ( पुनर्विदूषकं प्रति) तवापि योग्यमिदं मया विदर्भदेशादानीतम् ।
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विदूषकः - ( विलोक्य सभयकम्पम्) (१) श्री रायं! अहं एयाओ ठाणाओ उट्ठस्सं ।
राजा - किमिति ?
विदूषकः (२) जई एसा थूलमहिसी कडियडं नच्चावंती ममोवरि पडेदि, ता धुवं मं मारेदि ।
शेखर - महाराज की जैसी आज्ञा (यह कहकर शेखर रङ्गमञ्च पर से चला जाता
है)।
(पश्चात् अपने कटिप्रदेश को नचाती हुई लम्बस्तनी प्रवेश करती है )
राजा - (देखकर) स्वरूप से तो कृत्या नामक राक्षसी सी लगती है।
कलहंस- (अपवारित में) केवल आकृति से ही नहीं, कर्म से भी यह कृत्या राक्षसी ही है । ( पुनः विदूषक से) आपके योग्य इस (लम्बस्तनी) को मैं विदर्भदेश से लाया है।
विदूषक - ( देखकर भय से काँपता हुआ) हे राजन् ! (अब) मैं इस स्थान से उहूँगा (अर्थात् चलूँगा)।
राजा- क्यों?
विदूषक - स्थूल भैंस की तरह मोटी यह कमर को नचाती हुई यदि मेरे ऊपर गिर गयी, तो निश्चित ही मुझे मार डालेगी ।
(१) भो राजन् ! अहमेतस्मात् स्थानादुत्थास्यामि ।
(२) यद्येषा स्थूलमहिषी कटितटं नर्तयन्ती ममोपरि पतेत्, तदा ध्रुवं मां मारयेत्।
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