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________________ सातवां अधिकार | ७३ उसे यों समझाकर धन्यकुमार उसी वक्त अपने सालेके घर गया और उसे उदासीन देखकर बोला-प्रियवर ! आजकल आप हमारे घरपर क्यों नहीं आते हो ? उत्तरमें शालीभद्रने कहा-मान्य मैं क्या करु संयम (मुनिपद) बड़ा ही कठिन है सो उसीकी सिद्धि के लिये तपश्चरणका अभ्यास यहीं रहकर किया करता हूँ इसीसे आपके घर न आ सका। धन्यकुमारने कहा-अच्छा, यदि तुम्हें दीक्षा ही लेना है तो जल्दी करो । यहां तपका अभ्यास करनेसे क्या लाभ हो सकेगा ? अरे ! पहिले भी वृषभ आदि बहुतसे महात्मा वर्षादि योगके धारण करनेवाले हुये हैं और तपके द्वारा मोक्ष गये हैं, क्या उन्होंने भी घरमें अभ्यास किया था ? नहीं ! किन्तु मेघ वगैरह कुछ भी थोडासा वैराग्यका कारण देखकर असंख्य वर्षों तक भोगा हुआ भी राज्य सुख देखते२ निडर होकर छोड़ दिया और तपके द्वारा कर्मोका नाश कर मोक्षमें चले गये । वास्तव में उन्हें ही पुरुषोत्तम कहना चाहिये । तुम डरपोक जान पडते हो इसोलिये तपका अभ्यास करते हो । देखो ! मैं अभी ही इस कठिन दीक्षाको भी बिना अभ्यासही के ग्रहण किये लेता हूँ। तुम नहीं जानते कि संसारका नाश करनेवाला पापी काल न मालुम कब तुम्हें वा मुझे अथवा औरोंको लिवा ले जाने के लिये चला आवेगा? देखो ! काल गर्भ में रहनेवाले, जवान, दीन, दुःखी सुखी, धनी और निर्धन आदि किसीकी कुछ परवाह न कर सभी को अपना शिकार बना लेता है । इसलिये भाग्यवश जबतक वह न आने पावे उसके पहिले ही जिन दीक्षा लेकर हितके मार्गमें लग जाना चाहिये । क्योंकि जबतक जहां राक्षसोंका शरीर पर अधिकार नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001883
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages646
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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