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________________ ७२ । श्री धन्यकुमार चरित्र वह यह बात अच्छी तरह जानता था कि धर्मसे धन मिलता है, धनसे काम सुख मिलता है और कामके छोड़ने से अनन्त सुखका समुद्र मोक्ष मिलता है । इसलिये अपनी अमीष्ट सिद्धिके लिये मन, वचन, कायसे धर्मका सेवन करने में लगा रहता था । वह धर्म को ही शक्ति समझनी चाहिये जो धन्यकुमार को सब सुखको कारण राज्य लक्ष्मी मिली थी वह हरएक तरहके उत्तम२ सुखके अनुभवसे सुख-समुद्र में यहांतक डूबा था कि समय कितना बोत गया उसकी भी उसे खबर न रही । एक दिन धन्यकुमारने अपनी सुभद्रा नाम स्त्रीका मुख कुछ मलिन देखकर उससे पूछा प्रिये ! तुम क्या यह बात कह सकोगी कि आज तुम्हारा मुख किस लिये मलिन है । जाना जाता है तुम्हें किसी शोकने धर दबाया है। ___ वह बोली-स्वामी ! मेरा भाई शालिभद्र बहुत दिनोंसे धनकुटुम्ब शरीर और सुख सामग्रीसे उदासीन हो गया है और सदा वैराग्यका चिन्तबन पूर्वक घरहीमें तपका अभ्यास किया करता है परन्तु आज यह मालूम हुआ कि वह जिन दीक्षा लेना चाहता है । विभो ! उसे मैं बड़ी ही प्रेमकी निगाहसे देखा करती हूँ सो उसका भावी वियोग सुनकर बड़ी दु:खिनी हो रही हूँ। ___ नाथ ! आपके राज्यमें मुझे सब तरहका सुख मिलने पर भी केवल भाईका विरह दु:ख ही दु:खिनी कर रहा है। यही मेरे शोकका हेतु है । यह सुनकर धन्यकुमार बोलाबस ! यही दु:खका कारण है ? अभी ही जाकर मैं उन्हें सुमधुर वचनोंसे समझाये देता हूँ जिससे हम सबको सुख होगा, तुम शोक छोड़ो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001883
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages646
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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