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श्री धन्यकुमार चरित्र लगा तब उसे वही धन दीख पड़ा। द्रव्य देखकर वह आश्चर्य के साथ विचारने लगा ॥४२॥ अहो! उस पुण्यशालीके शुभोदयसे यह द्रव्य निकला है इसलिये मेरे स्वोकार करने योग्य नहीं है ॥४३-४४॥
यही कारण है कि जो मूर्ख लोग लोभसे दूसरोंका धन ले लेते हैं वे पापके उदयसे अपनी लक्ष्मोका भा साथमें नाश कर जन्म २ में दरिद्री होते हैं ॥४५॥
इस प्रकार विचार कर दूसरोंके धनमें निस्पृह कुटुम्बी वह धन धन्यकुमारको देनेके लिये उसके पीछे २ जल्दी जाने लगा ॥४६॥ धन्यकुमार दूरसे बुलानेवाले कुटुम्बीको आता हुआ देखकर एक वृक्षके नीचे सुखपूर्वक बैठ गया ।।४७।।
इतने में कुटुम्बी धन्यकुमारके पास आकर तथा उसे नमस्कार करकै बोला-हे नाथ ! अपना धन छोड़कर इस तरह इच्छा रहित क्यों चले आये ? ॥४८।। कुटुम्बीके वचन सुनकर धन्यकुमार बोला-भाई ! मैं क्या द्रव्य साथ में लेकर यहां आया था ? नहीं ! किंतु उल्टा तुम्हींने तो मुझे दहीं तथा भातका भोजन कराया है फिर यह धन मेरा कहांसे आया ? इसके उत्तरमें अत्यंत निर्लोभी और चतुर कुटम्बी कहने लगा ।।४९॥
कुमार ! मेरे वचन सुनिये-पहले हमारे पितामह तथा पिता यह खेत अपने पुत्रके साथ२ जोता करते थे तथा मैं भी हल चलाता था, परन्तु कभी धन नहीं निकला और तुम्हारे आनेपर आज शुभोदयसे यह धन निकला है इसलिये निश्चयसे यह धन तुम्हारा है क्योंकि हम सरोखे मन्द भाग्योंके लिये ऐसी सम्पत्ति कहां? ।।५०-५२।।
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