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द्वितीय अधिकार
[ १९ करो ! कृषकको प्रार्थना सुनकर धन्यकुमारने उससे कहा यह बात मुझे स्वीकार है ।।३।।
धन्यकुमारकी स्वीकारतासे सन्तोषित होकर कुटुम्बी उसे हलके पास बिठाकर आप पत्तोंका पात्र बनाने के लिये पत्र लेने गया ॥३२।।
कृषकके चले जानेपर धन्यकुमार मुठ्ठोसे हल पकड़ कर अपनी अपनी इच्छानुसार सहर्ष कौतुकसे बैलोंको चलाने लगा ॥३४॥ ___ उस समय हलके अग्रभागसे पृथ्वीका विदारण होते ही उसे सुवर्णसे भरा हुआ तांबेका बड़ा भारी एक कलश दीख पड़ा ।।३५।। उसे देखकर धन्यकुमार हा ! मेरे इस अपूर्व विज्ञानाभ्याससे पूरा पड़े ।।३६।। यदि कुटुम्बी यह प्रचुर धन देखेगा तो प्रगटपने वह भी भाईयोके समान मेरे साथ वरताव करेगा ।।३७॥
इस प्रकार विचार करके द्रव्यके भयसे डर कर धन्यकुमार कलशको उसी तरह रखकर और मिट्टिसे उसे ढककर बैठ गया ।।३८|| ___ इतने में कृषक भी पत्त' लाया और खड्डे में रखे हये निर्मल जलका भरा हुआ कलश तथा दही भात निकाल कर जलसे धन्यकुमारके चरणकमल तथा पत्त धोकर पत्तोंके भाजनमें भोजन करने के लिये उसे बिठाया ।।३९-४०।।
धन्यकुमारने कृषककी प्रार्थनाके अनुसार भोजन किया और बाद उसने राजगृह जानेका सुगम मार्ग पूछ कर उसी रास्तेसे अपनी इच्छा के अनुसार चला गया ।।४।।
धन्यकुमारके जाने के बाद जब कृषक फिर हल चलाने
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