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३८४ योगीन्दु-विरचितः
[ दो० १०६एव हि लक्खणे-लक्खियउ जो परु णिक्कल देउ । देहहँ मज्ॉहि सो वसइ तासु ण विजई भेउ ॥१०६॥ [ एवं हि लक्षणलक्षितः यः परः निष्कलः देवः ।।
देहस्य मध्ये स वसति तयोः न विद्यते भेदः ॥] पाठान्तर-१) अप-एयहि, झ-एहि य. २) ब-लक्खणि, ३) ब-देहहिं मज्झिहिं. ४) ब-किजइ.
__ अर्थ-इन लक्षणोंसे युक्त परम निष्कल देव जो देहमें निवास करता है, उसमें और आत्मामें कोई भी भेद नहीं हैं ॥ १०६ ॥
जे सिद्धा जे सिज्झिहिहि जे सिज्झहि जिण-उत्तु । अप्पा-दंसणि ते वि फुड एहउँ जाणि णिभंतु ॥ १०७॥ [ये सिद्धाः ये सेत्स्यन्ति ये सिध्यन्ति जिनोक्तम् ।
आत्मदर्शनेन ते अपि स्फुटं एतत् जानीहि निर्धान्तम् ॥] पाठान्तर-१) अप-सिज्झहिं, झ-सिज्झसिहिं. २) अपझ-दसण ३) अपझ-एहो.
अर्थ-जो सिद्ध हो चुके हैं, भविष्यमें होंगे और वर्तमानमें होते हैं, वे सब निश्चयसे आत्मदर्शनसे ही सिद्ध हुए हैं—यह भ्रान्तिरहित समझो ॥ १०७ ।।
संसारह भय-भीयएणे जोगिचंद-मुणिएण । अप्पा-संबोहण कया दोहा इक्क-मणेणें ॥१०८॥ [संसारस्य भयभीतेन योगिचन्द्रमुनिना ।
आत्मसंबोधनाय कृतानि दोहकानि एकमनसा ॥] पाठान्तर--१) ब-संसारूभयभीतेन, झ-भयभीवएह. २) अप-जोगचंद, ब-योगचंद. ३) व-कव्वमिसेण.
अर्थ संसारके दुःखोंसे भयभीत ऐसे योगीन्दुदेव मुनिने आत्मसंबोधनके लिये एकाग्रमनसे इन दोहोंकी रचना की है ॥ १०८ ॥
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