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योगसारः
पाठान्तर - १) अपझ - हिंसादिक
२ ) पब-बियउ, झ-बिउ ३) ब-लेइ
अर्थ --- हिंसादिकका त्याग कर जो आत्माको स्थिर करता है, उसे दूसरा चारित्र ( छेदोपस्थापना)
दो० - १०५ ]
समझो - यह पंचमगतिको ले जानेवाला है || १०१॥
मिच्छादिउं जो परिहरणु सम्म सण- सुद्धि |
सो परिहार - विद्धि मुणि लहू पावहि सिव-सिद्धि ॥ १०२ ॥ [ मिथ्यादेः (१) यत् परिहरणं सम्यग्दर्शनशुद्धिः ।
तां परिहारविशुद्धिं जानीहि लघु प्राप्नोषि शिवसिद्धिम् ॥ ]
पाठान्तर - १ ) अपझ-मिच्छादिक, ब-मिच्छादिकु (?). २) अपझ - सिवसुद्धि. अर्थ —मिथ्यात्व आदिके परिहारसे जो सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि होती है, उसे परिहारविशुद्धि
समझो, उससे जीव शीघ्र ही मोक्षसिद्धिको प्राप्त करता है ॥ १०२ ॥
सुहुमहँ' लोहहँ जो विलउँ जो सुहुमु वि परिणामुँ । सोहमु विचारित मुणि सो सासय-सुह-धामु ॥ १०३ ॥ [सूक्ष्मस्य लोभस्य यः विलयः यः सूक्ष्मः अपि परिणामः ।
तत् सूक्ष्मं अपि चारित्रं जानीहि तत् शाश्वतसुखधाम ॥ ]
पाठान्तर - १) ब - सुहुमुहं. २) अप - विलसो ( विलयो ? ). अपझ - सुहमु हवे परिणामु
अर्थ — सूक्ष्म लोभका नाश होनेसे जो सूक्ष्म परिणामोंका अवशेष रह जाना है, वह सूक्ष्मचारित्र
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है; वह शाश्वत सुखका स्थान है ॥ १०३ ॥
अरहंतु विसो सिद्धु फुड्ड सो आयरिङ वियाणि ।
सो उवझायडे सो जि मुणि णिच्छइँ अप्पा जाणि ॥ १०४ ॥ [ अर्हन् अपि स सिद्धः स्फुटं स आचार्यः (इति) विजानीहि ।
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स उपाध्यायः स एव मुनिः निश्चयेन आत्मा (इति) जानीहि ॥ ]
पाठान्तर - १ ) झ - अरिहंतु. २) अप- सो उज्झाउ वि, झ-सो उज्झावो.
३८३
अर्थ-निश्चयनयसे आत्मा ही अर्हत् है, वही निश्वयसे सिद्ध है, और वही आचार्य है, और उसे ही उपाध्याय तथा मुनि समझना चाहिये ॥ १०४ ॥
सो सिउ संकरु विog सो सो रुद्द वि सो बुद्धु
सो जिणु ईसरु वंभु सो सो अनंतु सो सिद्धु ॥ १०५ ॥
[ स शिवः शङ्करः विष्णुः स स रुद्रः अपि स बुद्धः । सजिनः ईश्वरः ब्रह्मा स स अनन्तः स सिद्धः ॥ ]
पाठान्तर
१) अपझ - फुडु.
अर्थ — वही शिव है, वही शंकर है, वही विष्णु है, वही रुद्र है, वही बुद्ध है, वही जिन है, वही ईश्वर है, वही ब्रह्मा है, वही अनन्त है और सिद्ध भी उसे ही कहना चाहिये ॥ १०५ ॥
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