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३८२ योगीन्दु-विरचितः
[ दो० ९७[ वर्जितं सकलविकल्पेन परमसमाधि लभन्ते ।
यद् विन्दन्ति सानन्दं कि अपि तत् शिवसौख्यं भणन्ति ॥] पाठान्तर-१) अपझ-वियप्पह. २) अ-विदवि, प-विददि, झ-वेददि. ३) अ-साणंद कुवि, प-साणंद कु वि, झ-साणंद फुड.
अर्थ-जो समस्त विकल्पोंसे रहित होकर परम समाधिको प्राप्त करते हैं, वे आनन्दका अनुभव करते हैं, वह मोक्षसुख कहा जाता है ।। ९७ ॥
जो पिंडत्थु पयत्थु बुहे स्वत्थु वि जिण-उत्तु । रूवातीतु मुंणेहि लहु जिम परू होहि पवित्तु ॥९८॥
[ यत् पिण्डस्थं पदस्थं बुध रूपस्थं अपि जिनोक्तम् ।
___ रूपातीतं जानीहि लघु यथा परः भवसि पवित्रः ॥] पाठान्तर-१) प-बुहा, ब-बहु. २) अपझ-मुणेहु.
अर्थ-हे बुध ! जिनभगवान्के कहे हुए पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानको समझ; जिससे तू शीव ही परम पवित्र हो सके ।। ९८ ।।
सव्वे जीवा णाणमयो जो सम-भाव मुणेइ। सो सामाइउ जाणि फुड जिणवर एम भणेइ ॥॥९९ ॥ [ सर्वे जीवाः ज्ञानमयाः (इति) यः समभावः ज्ञायते ।
तत् सामायिक जानीहि स्फुटं जिनवरः एवं भणति ॥] पाठान्तर-१) अझ-णाणमय.
अर्थ-समस्त जीव ज्ञानमय हैं, इस प्रकार जो समभाव है, उसे निश्चयसे सामायिक समझो, ऐसा जिनभगवान्ने कहा है ॥ ९९ ॥
राय-रोस बे' परिहरिवि जो समभाउ मुणेइ । सो सामाइउ जाणि फुड केवलि एम भणेइ ॥१०॥ [राग-रोषौ द्वौ परिहत्य यः समभावः मन्यते ।
तत् सामायिक जानीहि स्फुटं जिनवरः एवं भणति ॥] पाठान्तर-१) अप-वि. २) अपझ-परिहरवि.
अर्थ-राग और द्वेष इन दोनोंको छोड़कर जो समभाव होता है, उसे निश्चयसे सामायिक समझो ऐसा जिनभगवान्ने कहा है ॥ १०॥
हिंसादि-परिहारु करि जो अप्पा हु ठवेइ । सो बिय चारित्तु मुणि जो पंचम-गइ णेई ॥ १०१॥ [हिंसादिकपरिहारं कृत्वा यः आत्मानं खलु स्थापयति । तद् द्वितीय चारित्रं जानीहि यत् पञ्चमगति नयति ॥]
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