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योगीन्दु-विरचितः -
[दो० ३०जई णिम्मल अप्पा मुणई वय-संजम-संजुत्तु । तो लहु पावई सिद्धि-सुह इउ जिणणाहहँ उत्तु ॥३०॥
[यदि निर्मलं आत्मानं जानाति व्रतसंयमसंयुक्तः ।
। तर्हि लघु प्रामोति सिद्धिसुखं इति जिननाथस्य उक्तम् ॥] पाठान्तर-१) झ-जो. २) अपझ-मुणई ३) अ-तौ लहु पावै.
अर्थ-जिनेन्द्रदेवका कथन है कि यदि व्रत और संयमसे युक्त होकर जीव निर्मल आत्माको पहिचानता है, तो वह शीघ्र ही सिद्धि-सुखको पाता है ॥ ३० ॥
वउ तव संजमु सीलु जिय ए सव्वैइँ अकयत्थु । जांव ण जाणइ इक्क परु सुद्धउ भाउ पवित्त ॥ ३१॥
[व्रतं तपः संयमः शीलं जीव एतानि सर्वाणि अकृतार्थानि ।
___ यावत् न ज्ञायते एकः परः शुद्धः भावः पवित्रः ॥] पाठान्तर-१) अप-वयतवसंजमु सीलु, ब-वउ तवसंजमसीलु, झ-बउ तउ संजम सील. २) अ-ए सब्बै, ब-एउ सव्वुइ. ३) ब-जहि लब्भइ सिवपंथु.
अर्थ-जबतक जीवको एक परम शुद्ध पवित्र भावका ज्ञान नहीं होता, तबतक व्रत, तप, संयम और शील ये सब कुछ भी कार्यकारी नहीं होते ॥ ३१ ॥
पुणि पावइ सग्ग जिउ पाएँ णरय-णिवासु । बे छंडिवि अप्पा मुणइ तो लब्भइ सिववासु ॥३२॥ [पुण्येन प्राप्नोति स्वर्ग जीवः पापेन नरकनिवासम् ।
द्वे त्यक्त्वा आत्मानं जानाति ततः लभते शिववासम् ॥] पाठान्तर-१) अप-पुण्णई, झ-पुण्णइ. २) अप-पावये, ब-पावै, झ-पावय. ३) झ-छंडेवि.
अर्थ-पुण्यसे जीव स्वर्ग पाता है, और पापसे नरकमें जाता है। जो इन दोनोंको (पुण्य और पापको) छोड़कर आत्माको जानता है, वह मोक्ष प्राप्त करता है ।। ३२ ।।
वउ तउ संजमु सील जियो इ सव्वई ववहारु । मोक्खहँ कारणु एकु मुणि जो तइलोयह सारु ॥ ३३ ॥ [व्रतं तपः संयमः शीलं जीव इति सर्वाणि व्यवहारः।
मोक्षस्य कारणं एक जानीहि यः त्रिलोकस्य सारः ॥] पाठान्तर-१) अब-जिय. २) झ-इय. ३) अपझ तइलोयहु.
अर्थ-व्रत, तप, संयम और शील ये सब व्यवहारसे ही माने जाते हैं । मोक्षका कारण तो एक ही समझना चाहिये, और वही तीनों लोकोंका सार है ॥ ३३॥
अप्पा अप्पइँ जो मुणइ जो परभाई चएइ । सो पावइ सिवपुरि-गमणु जिणवरु एम भणेइ ॥ ३४ ॥
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