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दो० - २९ ]
योगसारः
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अर्थ – यह जीव अनादि अनन्तकालतक चौरासी लाख योनियोंमें भटका है, परन्तु इसने सम्यक्त्व
नहीं पाया - हे जीव ! यह निस्सन्देह समझ ॥ २५ ॥
सुद्धु सचेणु बुद्ध जिणु केवल - णाण- सहाउ |
सो अप्पा अणुदिणु मुणहु जइ चाहहुं सिव-लाहु ॥ २६ ॥ [ शुद्धः सचेतनः बुद्धः जिनः केवलज्ञानस्वभावः ।
स आत्मा (इति) अनुदिनं जानीत यदि इच्छत शिवलाभम् ॥ ] पाठान्तर - १) अ - निसदिण. २) ब - चाहहि, अ-जो चाहहु
अर्थ - यदि मोक्ष पानेकी इच्छा करते हो, तो निरन्तर ही आत्माको शुद्ध, सचेतन, बुद्ध, जिन, और केवलज्ञान - स्वभावमय समझो || २६ ॥
जामं ण भावहि जीव तुहुँ णिम्मल अप्प- सहाउ ।
तामण लग्भइ सिव-गमणु जहि भावई तहि जाउ ॥ २७ ॥ [ यावत् न भावयसि जीव त्वं निर्मलं आत्मस्वभावम् । तावत् न लभ्यते शिवगमनं यत्र भाव्यते तत्र यात ।। ]
पाठान्तर - १) अपझ - जाव. २) अपझ - भावहु. ३) अझ भावहु, प-भावहि. अर्थ – हे जीव ! जबतक तू निर्मल आत्मस्वभावकी भावना नहीं करता, तबतक मोक्ष नहीं पा सकता । अब जहाँ तेरी इच्छा हो वहाँ जा ॥ २७ ॥
जो तइलोयहँ झेउ जिणु सो अप्पा णिरु वुत्तुं । णिच्छय-इँ एमइ भणिउं एहउँ जाणि णिभंतु ॥ २८ ॥ [ यः त्रिलोकस्य ध्येयः जिनः स आत्मा निश्वयेन उक्तः । निश्चयनयेन एवं भणितः एतत् जानीहि निर्भ्रान्तम् ॥ ]
पाठान्तर - १) ब - अप्पाणु वुत्तु. २) अ - णिच्छइणइ एमई भणियो, पणिच्छइणइ एमइ भणिउ, झ - णिच्छइणए इम भणिउ. ३) अ - एहो जाणि, झ-एहो जाण.
अर्थ — जो तीनों लोकोंके ध्येय जिनभगवान् हैं, निश्चयसे उन्हें ही आत्मा कहा है- यह कथन निश्चयनयसे है । इसमें भ्रांति न करनी चाहिये ॥ २८ ॥
वय-तव-संजम-मूल-गुणे मूढहँ मोक्ख ण वुत्तु ।
जाव ण जाणई इक्क पर सुद्धउ भाउ पवित्तु ॥ २९ ॥ [ व्रततपः संयम मूलगुणाः मूढानां मोक्षः (इति) न उक्तः । यावत् न ज्ञायते एकः परः शुद्धः भावः पवित्रः ॥ ]
पाठान्तर - १) अझ - संयय. २) झ-जाणे.
अर्थ - जबतक एक परम शुद्ध पवित्र भावका ज्ञान नहीं होता, तबतक मूढ़ लोगोंके जो व्रत, तप, संयम और मूलगुण हैं, उन्हें मोक्ष ( का कारण ) नहीं कहा जाता ॥ २९॥
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