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३६४ योगीन्दु-विरचितः
[ दो० २२[यः जिनः स आत्मा (इति) जानीत एष सिद्धान्तस्य सारः।
इति ज्ञात्वा योगिनः त्यजत मायाचारम् ।।] पाठान्तर-१) पझ-सिद्धतहु. २) अपझ-जोइहु. ३) ब-छंडउ.
अर्थ----जो जिनभगवान् है वहीं आत्मा है-यही सिद्धांतका सार समझो। इसे समझकर, हे योगीजनो ! मायाचारको छोड़ो ॥ २१ ॥
जो परमप्पो सो जि हउँ जो हउँ सो परमप्पु । इउ जाणेविणु जोइयाँ अण्णु म करहु वियप्पु ॥ २२॥ [यः परमात्मा स एव अहं यः अहं स परमात्मा।
इति ज्ञात्वा योगिन् अन्यत् मा कुरुत विकल्पम् ।।] पाठान्तर-१) ब-परअप्पा. २) अ-हुं. ३) अपझ-जोईया.
अर्थ-जो परमात्मा है वही मैं हूँ, तथा जो मैं हूँ वही परमात्मा है—यह समझकर हे योगिन् ! अन्य कुछ भी विकल्प मत करो ॥ २२ ॥
सुद्ध-पएसहँ पूरियां लोयायास-पमाणु । सो अप्पा अणुदिणु मुणहु पावहुँ लहु णिव्वाणु ॥ २३ ॥ [शुद्धपदेशानां पूरितः लोकाकाशप्रमाणः।
स आत्मा (इति) अनुदिनं जानीत प्राप्नुत लघु निर्वाणम् ॥] पाठान्तर-१) अ-पूरीयो. २) ब-सो अप्पा मुणि जीव तुहुं. ३) ब-पावहि.
अर्थ---जो शुद्ध प्रदेशोंसे पूर्ण लोकाकाश-प्रमाण है, उसे सदा आत्मा समझो, और शीघ्र ही निर्वाण प्राप्त करो ॥ २३ ॥
णिच्छई लोय-पमाणु मुणि ववहारें सुसरीरु । एहउँ अप्प-सहाउ मुणि लहु पावहि भव-तीरु ॥ २४॥ [निश्चयेन लोकप्रमाणः (इति) जानीहि व्यवहारेण स्वशरीरः ।
एनं आत्मस्वभावं जानीहि लघु पामोषि भवतीरम् ॥] पाठान्तर-१) ब-णिच्छय. २) अप-लोइपमाणु ३) अ-एहो. ४) अपझ-पावहु.
अर्थ-जो आत्मस्वभावको निश्चयनयसे लोक-प्रमाण, और व्यवहारनयसे स्वशरीर-प्रमाण समझता है, वह शीघ्र ही संसारसे पार हो जाता है ॥ २४ ॥
चउरोसी-लक्खहि फिरि कालु अणाइ अणंतु । पर सम्मत्तु ण लद्ध जिय एहँउ जाणि णिभंतु ।। २५ ।। [चतुरशीतिलक्षेषु भ्रामितः कालं अनादि अनन्तम् ।
परं सम्यक्त्वं न लब्धं जीव एतत् जानीहि निर्धान्तम् ॥] पाठान्तर-१) अ-चोरासी २) अपझ-लक्खह. ३) अ-फिरियो. ४) अ-एहो.
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