________________
३६३
दो० -२१]
योगसारः मग्गण-गुण-ठाणइ कहिया विवहारेण वि दिहि'। णिच्छय-णइँ अप्पा मुर्णहि जिम पावहु परमेहि ॥ १७ ॥ [मार्गणगुणस्थानानि कथितानि व्यवहारेण अपि दृष्टिः।
निश्चयनयेन आत्मानं जानीहि यथा प्राप्नोषि परमेष्ठिनम् ।।] पाठान्तर-१) ब-ववहारेण हु दिट्ठ २) प-मुणिहि, ब-मुणुहु. ३) ब-परमेट्ठ.
अर्थ-मार्गणा और गुणस्थानका व्यवहारसे ही उपदेश किया गया है । निश्चयनयसे तो तू आत्माको ही ( सब कुछ ) समझ; जिससे तू परमेष्ठीपदको प्राप्त कर सके ॥ १७ ॥
गिहि-वावार-परिडियो हेयाहेउ मुणंति । अणुदिणु झायहि देउ जिणु लहु णिव्वाणु लहंति ॥१८॥ [गृहिव्यापारमतिष्ठिताः हेयाहेयं जानन्ति ।
अनुदिनं ध्यायन्ति देवं जिनं लघु निर्वाणं लभन्ते ॥] पाठान्तर- १) अपझ-परट्ठिया.
अर्थ- जो गृहस्थीके धंधे रहते हुए भी हेयाहेयको समझते हैं और जिनभगवान्का निरन्तर ध्यान करते हैं, वे शीघ्र ही निर्वाणको पाते हैं ॥ १८ ॥
जिणु सुमिरहु जिणु चिंतवहु जिणु झायहु सुमणेण । सो झायंतहँ परम-पउ लगभइ एक-खणेण ॥१९॥ [जिनं स्मरत जिनं चिन्तयत जिनं ध्यायत सुमनसा ।
तं ध्यायतां परमपदं लभ्यते एकक्षणेन ।।] पाठान्तर-१) ब-समरहु. २) अपझ-जिण. ३) ब-जे.
अर्थ-शुद्ध मनसे जिनका स्मरण करो, जिनका चिन्तवन करो, और जिनका ध्यान करो; उनका ध्यान करनेसे एक क्षणभरमें परमपद प्राप्त हो जाता है ॥ १९ ॥
सुद्धप्पा अरु जिणवरहँ भेडे म किं पि वियाणि । मोक्खहँ कारणे जोइया णिच्छइँ एउ विजाणि ॥२०॥ [शुद्धात्मनां च जिनवराणां भेदं मा किमपि विजानीहि ।
मोक्षस्य कारणे योगिन् निश्चयेन एतद् विजानीहि ॥ ] पाठान्तर-१) ब-अहु (?). २) अ-मेद. ३) ब-कारणि, अझ-कारणि.
अर्थ हे योगिन् ! मोक्ष प्राप्त करनेमें शुद्धात्मा और जिनभगवान्में कुछ भी भेद न समझोयह निश्चय मानो ॥ २०॥
जो जिणु सो अप्पा मुणहु इहु सिद्धंतहँ सारु । इउ जाणेविणु जोईयहो छैडहु मायाचारु ॥ २१॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org