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________________ ३०५ दोहा २०२ ] परमात्मप्रकाशः ऽन्तो विनाशो यस्य स भवत्यनन्तः। किं कृता पूर्व मुक्तो भवति । कम्मक्खउ करिवि विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावादात्मद्रव्याद्विलक्षणं यदातरौद्रध्यानद्वयं तेनोपार्जितं यत्कर्म तस्य क्षयः कर्मक्षयस्तं कृता । केन। झाणे रागादिविकल्परहितस्वसंवेदनज्ञानलक्षणेन ध्यानेनेति तात्पर्यम् ॥ २०१॥ अथ अण्णु वि बंधु वि तिहुयणहँ सासय-सुक्ख-सहाउ । तित्थु जि सयलु वि कालु जिय णिवसह लद्ध-सहाउ ।। २०२ ॥ अन्यदपि बन्धुरपि त्रिभुवनस्य शाश्वतसौख्यस्वभावः । तत्रैव सकलमपि कालं जीव निवसति लब्धस्वभावः ॥ २०२॥ अण्णु वि इत्यादि । अण्णु वि अन्यदपि पुनरपि स पूर्वोक्तः सिद्धः । कथंभूतः । बंधु वि बन्धुरेव । कस्य । तिहुयणहं त्रिभुवनस्थभव्यजनस्य । पुनरपि किं विशिष्टः । सासयसुक्खसहाउ रागादिरहिताव्याबाधशाश्वतसुखस्वभावः । एवंगुणविशिष्टः सन् किं करोति स भगवान् । तित्थु जि तत्रैव मोक्षपदे णिवसइ निवसति । कथंभूतः सन् । लद्धसहाउ लब्धशुद्धात्मस्वभावः कियत्कालं निवसति । सयलु वि समस्तमप्यनन्तानन्तकालपर्यन्तं जिय हे जीव इति । अत्रानेन समस्तकालग्रहणेन किमुक्तं भवति । ये केचन वदन्ति मुक्तानां पुनरपि संसारे पतनं भवति तन्मतं निरस्तमिति भावार्थः ।। २०२॥ आराधते हैं । केवलज्ञानादि महान अनंतगुणोंके धारण करनेसे वह महान अर्थात् सबमें बड़े हैं । जो सिद्धभगवान ज्ञानावरणादि आठों ही कर्मोंसे रहित है, और सम्यक्त्वादि आठ गुण सहित है । क्षायकसम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतवीर्य, सूक्ष्म, अवगाहन, अगुरुलघु, अव्याबाध-इन आठ गुणोंसे मंडित हैं, और जिसका अन्त नहीं ऐसा निरंजनदेव विशुद्धज्ञान दर्शन स्वभाव जो आत्मद्रव्य उससे विपरीत जो आर्त रौद्र खोटे ध्यान उनसे उत्पन्न हुए जो शुभ अशुभ कर्म उनका स्वसंवेदनज्ञानरूप शुक्लध्यानसे क्षय करके अक्षय पद पा लिया है । कैसा है शुक्लध्यान ? रागादि समस्त विकल्पोंसे रहित परम निराकुलतारूप है । यही ध्यान मोक्षका मूल है, इसीसे अनन्त सिद्ध हुए और होंगे ।।२०१॥ __ आगे फिर भी सिद्धोंकी महिमा कहते हैं- [अन्यदपि] फिर वे सिद्धभगवान [त्रिभुवनस्य] तीन लोकके प्राणियोंका [बंधुरपि] हित करने वाले हैं, [शाश्वतसुखस्वभावः] और जिनका स्वभाव अविनाशी सुख है, और [तत्रैव] उसी शुद्ध क्षेत्रमें [लब्धस्वभावः] निजस्वभावको पाकर [जीव] हे जीव, [सकलमपि कालं] सदा काल [निवसति] निवास करते हैं, फिर चतुर्गतिमें नहीं आवेंगे | भावार्थ-सिद्धपरमेष्ठी तीनलोकके नाथ है, और जिनका भव्यजीव ध्यान करके भवसागरसे पार होते हैं, इसलिये भव्योंके बंधु है, हितकारी है । जिनका रागादि रहित अव्याबाध अविनाशी सुख स्वभाव है । ऐसे अनन्त गुणरूप वे भगवान उस मोक्ष पदमें सदा काल विराजते हैं । जिन्होंने शुद्ध आत्मस्वभाव पा लिया है । अनन्तकाल बीत गये, और अनन्तकाल आवेंगे, परंतु वे प्रभु सदाकाल पर०३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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