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________________ ३०६ अथ योगीन्दुदेवविरचितः [ अ० २, दोहा २०३ Jain Education International जम्मण-मरण- विवज्जियउ चउ - गइ - दुक्ख विमुक्कु । केवल - दंसण - णाणमउ णंदइ तित्थु जि मुक्कु ॥ २०३ ॥ जन्ममरणविवर्जितः चतुर्गतिदुःखविमुक्तः । केवलदर्शनज्ञानमयः नन्दति तत्रैव मुक्तः ॥ २०३ ॥ पुनरपि कथंभूतः स भगवान्। जम्मणमरणविवज्जियउ जन्ममरणविवर्जितः । पुनरपि किंविशिष्टः । चउगइदुक्खविमुक्कु सहजशुद्धपरमानन्दैकस्वभावं यदात्मसुखं तस्माद्विपरीतं यच्चतुर्गतिदुःखं तेन विमुक्तो रहितः । पुनरपि किंस्वरूपः । केवलदंसणणाणमउ क्रमकरणव्यवधानरहितत्वेन जगत्रयकालत्रयवर्तिपदार्थानां प्रकाशककेवलदर्शनज्ञानाभ्यां निर्वृत्तः केवलदर्शनज्ञानमयः । एवंगुणविशिष्टः सन् किं करोति । णंदह स्वकीयस्वाभाविकानन्तज्ञानादिगुणैः सह नन्दति वृद्धिं गच्छति । क । तित्थु जि तत्रैव मोक्षपदे । पुनरपि किंविशिष्टः सन् । मुक्कु ज्ञानावरणाद्यष्टकर्मनिर्मुक्तो रहितः अव्याबाधाद्यनन्तगुणैः सहितश्चेति भावार्थः ॥ २०३ ॥ एवं चतुर्विंशतिसूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये सिद्धपरमेष्ठिव्याख्यानमुख्यत्वेन सूत्रत्रयेण चतुर्थमन्तरस्थलं गतम् । सिद्धक्षेत्रमें बस रहे हैं । समस्त काल रहते हैं, इसके कहनेका प्रयोजन यह है, कि यदि कोई ऐसा कहते हैं, कि मुक्त-जीवोंका भी संसारमें पतन होता है, सो उनका कहना खंडित किया गया । २०२ । आगे फिर भी सिद्धों का ही वर्णन करते हैं - [ जन्ममरणविवर्जितः ] वे भगवान सिद्धपरमेष्ठी जन्म और मरणकर रहित हैं, [ चतुर्गतिदुःखविमुक्तः ] चारों गतियोंके दुःखोंसे रहित हैं, [ केवलदर्शनज्ञानमयः ] और केवलदर्शन केवलज्ञानमयी हैं, ऐसे [मुक्तः ] कर्म रहित हुए [ तत्रैव ] अनंतकालतक उसी सिद्धक्षेत्रमें [ नंदति ] अपने स्वभावमें आनंदरूप विराजते हैं । भावार्थ - सहज शुद्ध परमानंद एक अखंड स्वभावरूप जो आत्मसुख उससे विपरीत जो चतुर्गतिके दुःख उनसे रहित हैं, जन्म-मरणरूप रोगोंसे रहित हैं, अविनश्वरपुरमें सदा काल रहते हैं । जिनका ज्ञान संसारी जीवोंकी तरह विचाररूप नहीं है, कि किसीको पहले जानें, किसीको पीछे जाने, उनका केवलज्ञान और केवलदर्शन एक ही समयमें सब द्रव्य, सब क्षेत्र, सब काल, और सब भावोंको जानता है । लोकालोक प्रकाशी आत्मा निज भाव अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, और अनंतवीर्यमयी है । ऐसे अनंत गुणोंके सागर भगवान सिद्धपरमेष्ठी स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभावरूप चतुष्टयमें निवास करते हुए सदा आनंदरूप लोकके शिखरपर विराज रहे हैं, जिसका कभी अन्त नहीं, उसी सिद्धपदमें सदा काल विराजते हैं, केवलज्ञान दर्शन कर घट-घटमें व्यापक हैं । सकल कर्मोपाधि रहित महा निरुपाधि निराबाधपना आदि अनंतगुणों सहित मोक्षमें आनंद विलास करते हैं ||२०३ || इस तरह चौबीस दोहोंवाले महास्थलमें सिद्धपरमेष्ठीके व्याख्यानकी मुख्यताकर तीन दोहोंमें चौथा अन्तरस्थल कहा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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