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________________ ३०४ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा २०१जिनदेवः। किंविशिष्टः । विसुद्ध समस्तरागादिदोषपरिहारेण शुद्ध इति। अत्र य एव परमात्मप्रकाशसंज्ञो निर्दोषिपरमात्मा व्याख्यातः स एव परमात्मा, स एव परमपदः, स एव विष्णुसंज्ञः, स एवेश्वराभिधानः, स एव ब्रह्मशब्दवाच्यः, स एव सुगतशब्दाभिधेयः, स एव जिनेश्वरः, स एव विशुद्ध इत्याद्यष्टाधिकसहस्रनामाभिधेयो भवति । नानारुचीनां जनानां तु कस्यापि केनापि विवक्षितेन नाम्नाराध्यः स्यादिति भावार्थः। तथा चोक्तम्- "नामाष्टकसहस्रेण युक्तं मोक्षपुरेश्वरम्" इत्यादि ॥ २०० ॥ एवं चतुर्विंशतिसूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये परमात्मप्रकाशशब्दार्थकथनमुख्यखेन सूत्रत्रयेण तृतीयमन्तरस्थलं गतम् । तदनन्तरं सिद्धस्वरूपकथनमुख्यत्वेन सूत्रत्रयपर्यन्तं व्याख्यानं करोति तद्यथा झाणे कम्म-क्खउ करिवि मुक्कउ होइ अणंतु । जिणवरदेवई सो जि जिय पणिउ सिद्ध महंतु ॥ २०१॥ ध्यानेन कर्मक्षयं कृत्वा मुक्तो भवति अनन्तः । जिनवरदेवेन स एव जीव प्रभणितः सिद्धो महान् ॥ २०१॥ पभणिउ प्रभणितः कथितः । केन कर्तृभूतेन । जिणवरदेवइं जिनवरदेवेन । कोऽसौ भणितः । सिद्ध सिद्धः । कथंभूतः । महंतु महापुरुषाराधितत्वात् केवलज्ञानादिमहागुणा. धारत्वाच्च महान् । क एव । सो जि स एव । स कः योऽसौ मुक्कउ होइ ज्ञानावरणादिभिः कर्मभिर्मुक्तो रहितः सम्यक्त्वाद्यष्टगुणसहितश्च जिय हे जीव । कथंभूतः । अणंतु न विद्यतेपरमानंद ज्ञानादि गुणोंका आधार होनेसे परमपद कहते हैं । वही विष्णु है, वही महादेव है, उसीका नाम परब्रह्म है, सबका ज्ञायक होनेसे बुद्ध है, सबमें व्यापक ऐसा जिनदेव देवाधिदेव परमात्मा अनेक नामोंसे गाया जाता है । समस्त रागादिक दोषके न होनेसे निर्मल है, ऐसा जो अरहंतदेव वही परमात्मा परमपद, वही विष्णु, वही ईश्वर, वही ब्रह्म, वही शिव, वही सुगत, वही जिनेश्वर, और वही विशुद्ध इत्यादि एक हजार आठ नामोंसे गाया जाता है । नाना रुचिके धारक ये संसारी जीव इन नाना प्रकारके नामोंसे जिनराजको आराधते हैं । ये नाम जिनराजके सिवाय दूसरेके नहीं हैं । ऐसा ही दूसरे ग्रन्थोंमें भी कहा हैं-एक हजार आठ नामों सहित वह मोक्षपुरका स्वामी उसकी आराधना सब करते हैं । उसके अनंत नाम और अनंतरूप हैं । वास्तवमें नामसे रहित, रूपसे रहित ऐसे भगवान देवको हे प्राणियों, तुम आराधो ॥२००।। इस प्रकार चौबीस दोहोंके महास्थलमें परमात्मप्रकाश शब्दके अर्थकी मुख्यतासे तीन दोहोंमें तीसरा अन्तरस्थल कहा । आगे सिद्धस्वरूपके कथनकी मुख्यतासे तीन दोहोंमें व्याख्यान करते हैं-[ध्यानेन] शुक्लध्यानसे [कर्मक्षयं] कर्मोंका क्षय [कृत्वा] करके [मुक्तः भवति] जो मुक्त होता है, [अनंतः] और अविनाशी है, [जीव] हे जीव, [स एव] उसे ही [जिनवरदेवेन] जिनवरदेवने [महान् सिद्धः प्रभणितः] सबसे महान सिद्ध भगवान कहा है ।। भावार्थ-अरहंतपरमेष्ठी सकल सिद्धान्तोंके प्रकाशक हैं, वे सिद्ध परमात्माको सिद्धपरमेष्ठी कहते हैं, जिसे सब संत पुरुष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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