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________________ ३०२ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १९८सर्वे जीवा जिनस्वरूपाः जिनोऽपि सर्वजीवस्वरूप इति भावार्थः। तथा चोक्तम्- "जीवा जिणवर जो मुणइ जिणवर जीव मुणेइ। सो समभावि परिट्ठियउ लहु णिव्वाणु लहेइ ॥" ॥१९७॥ एवं चतुर्विशतिसूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये अहंदवस्थाकथनमुख्यत्वेन सूत्रत्रयेण द्वितीयमन्तरस्थलं गतम् । __अत ऊर्ध्वं परमात्मप्रकाशशब्दस्यार्थकथनमुख्यत्वेन सूत्रत्रयपर्यन्तं व्याख्यानं करोति । तद्यथा सयलह कम्मह दोसह वि जो जिणु देउ विभिण्णु । सो परमप्प-पयासु तुहुँ जोइय णियमे मण्णु ।। १९८ ॥ सकलेभ्यः कर्मभ्यः दोषेभ्यः अपि यो जिनः देवः विभिन्नः । तं परमात्मप्रकाश त्वं योगिन् नियमेन मन्यस्व ॥ १९८ ॥ सो तं परमप्पपयासु परमात्मप्रकाशसंज्ञं तुहुं वं कर्ता मण्णु मन्यस्व जानीहि जोड्य हे योगिन् णियमें निश्चयेन । स कः। जो जिणु देउ यो जिनदेवः । किंविशिष्टः । विभिण्णु विशेषेण भिन्नः । केभ्यः । सयलहं कम्महं रागादिरहितचिदानन्दैकस्वभावपरमात्मनो यानि भिन्नानि सर्वकर्माणि तेभ्यः । न केवलं कर्मभ्यो भिन्नः। दोसहं विटङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावस्य परमात्मनो येऽनन्तज्ञानमुखादिगुणास्तत्मच्छादका ये दोषास्तेभ्योऽपि भिन्न इत्यभिमायः ॥ १९८॥ हैं, सभी जीव जिनसमान हैं, और जिनराज भी जीवोंके समान हैं, ऐसा जानना । ऐसा दूसरी जगह भी कहा हैं जो सम्यग्दृष्टि जीवोंको जिनवर जाने, और जिनवरको जीव जाने, जो जीवोंकी जाति है, वही जिनवरकी जाति है, और जो जिनवरकी जाति है, वही जीवोंकी जाति है, ऐसे महामुनि द्रव्यार्थिकनयकर जीव और जिनवरमें जातिभेद नहीं मानते, वे मोक्ष पाते हैं ।।१९७।। इस प्रकार चौबीस दोहोके महास्थलमें अरहंतदेवके कथनकी मुख्यतासे तीन दोहोंमें दूसरा अंतरस्थल कहा । आगे परमात्मप्रकाश शब्दके अर्थके कथनकी मुख्यतासे तीन दोहा कहते हैं-सकलेभ्यः कर्मभ्यः] ज्ञानावरणादि अष्टकर्मोंसे [दोषेभ्यः अपि] और सब क्षुधादि अठारह दोषोंसे [विभिन्नः] रहित [सः जिनदेवः] जो जिनेश्वरदेव है, [तं] उसको [योगिन् त्वं] हे योगी, तू [परमात्मप्रकाशं] परमात्मप्रकाश [नियमेन] निश्चयसे [मन्यस्व] मान । अर्थात् जो निर्दोष जिनेन्द्रदेव हैं, वही परमात्मप्रकाश हैं ॥ भावार्थ-रागादि रहित चिदानंदस्वभाव परमात्मासे भिन्न जो सब कर्म वे ही संसारके मूल हैं । जगतके जीव तो कर्मोंकर सहित हैं, और भगवान जिनराज इनसे मुक्त हैं, और सब दोषोंसे रहित हैं । वे दोष सब संसारी जीवोंके लग रहे हैं, ज्ञायकस्वभाव आत्माके अनंतान सुखादि गुणोंके आच्छादक हैं । उन दोषोंसे रहित जो सर्वज्ञ वही परमात्मप्रकाश हैं, योगीश्वरोके मनमें ऐसा ही निश्चय है । श्रीगुरु शिष्यसे कहते हैं कि हे योगिन् ! तू निश्चयसे ऐसा ही मान, यही सत्पुरुषोंका अभिप्राय हैं ।।१९८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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