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________________ परमात्मप्रकाशः ३०१ - दोहा १९७ ] ज्ञानेन । कथम् । अणवरउ निरन्तरम् । किंविशिष्टो भवति भगवान् । परमाणंदमउ वीतरागपरमसमरसीभावलक्षणतास्त्रिकपरमानन्दमयः । केन । णियमें निश्चयेन अत्र संदेहो न कर्तव्य इत्यभिप्रायः ।। १९६ ॥ 1 अथ जो जिणु केबल - णाणमउ परमाणंद-सहाउ । सो परमप्प परम-परु सो जिय अप्प - सहाउ ॥ १९७ ॥ यः जिनः केवलज्ञानमयः परमानन्दस्वभावः । सः परमात्मा परमपरः स जीव आत्मस्वभावः ॥ १९७ ॥ जो इत्यादि । जो यः जिणु अनेकभव गहनव्यसनप्रापणहेतून कर्मारातीन् जयतीति जिनः । कथंभूतः । केवलणाणमउ केवलज्ञानाविना भूतानन्तगुणमयः । पुनरपि कथंभूतः । परमानंद सहाउ इन्द्रियविषयातीतः स्वात्मोत्थः रागादिविकल्परहितः परमानन्दस्वभावः सो परमप्प स पूर्वोक्तोऽर्हन्नेव परमात्मा परमपरु प्रकृष्टानन्तज्ञानादिगुणरूपा मा लक्ष्मीर्यस्य स भवति परमः संसारिभ्यः पर उत्कृष्टः इत्युच्यते परमश्रासौ परश्च परमपरः सो स पूर्वोक्तो वीतरागः सर्वज्ञः जिय हे जीव अप्पसहाउ आत्मस्वभाव इति । अत्र योऽसौ पूर्वोक्तभणितो भगवान् स एव संसारावस्थायां निश्चयनयेन शक्तिरूपेण जिन इत्युच्यते । केवलज्ञानावस्थायां व्यक्तिरूपेण च । तथैव च परमब्रह्मादिशब्दवाच्यः स एव तदग्रे स्वयमेव कथयति । निश्चयनयेन आगे पीछे नहीं जानता । सब क्षेत्र, सब काल, सब भावको निरंतर प्रत्यक्ष जानता है । जो केवली भगवान परम आनंदमयी हैं । वीतराग परमसमरसीभावरूप जो परम आनंद अतीन्द्रिय अविनाशी सुख वही जिसका लक्षण है । निश्चयसे ज्ञानानंदस्वरूप है, इसमें संदेह नहीं है ॥ १९६ ॥ आगे ऐसा कहते हैं, कि केवलज्ञान ही आत्माका निजस्वभाव है, और केवलीको ही परमात्मा कहते हैं - [ यः जिनः ] जो अनंत संसाररूपी वनके भ्रमणके कारण ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूपी वैरी उनका जीतनेवाला वह [ केवलज्ञानमयः ] केवलज्ञानादि अनंत गुणमयी है [ परमानंदस्वभावः] और इंद्रिय विषयसे रहित आत्मिक रागादि विकल्पोंसे रहित परमानंद ही जिसका स्वभाव है, ऐसा जिनेश्वर केवलज्ञानमयी अरहंतदेव [ सः ] वही [ परमात्मा] उत्कृष्ट अनंत ज्ञानादि गुणरूप लक्ष्मीवाला आत्मा परमात्मा है । उसीको वीतराग सर्वज्ञ कहते हैं । [ जीव] हे जीव, वही [ परमपरः ] संसारियोंसे उत्कृष्ट है, ऐसा जो भगवान वह तो व्यक्तिरूप है, और [ स आत्मस्वभावः ] वह आत्माका ही स्वभाव है || भावार्थ-संसार अवस्थामें निश्चयनयकर शक्तिरूप विराजमान है, इसलिये संसारीको शक्तिरूप जिन कहते हैं, और केवलीको व्यक्तिरूप जिन कहते हैं । द्रव्यार्थिकनयकर जैसे भगवान हैं, वैसे ही सब जीव हैं, इस तरह निश्चयनयकर जीवको परब्रह्म कहो, परमशिव कहो, जितने भगवानके नाम हैं, उतने ही निश्चयनयकर विचारो तो सब जीवोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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