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________________ योगीन्दुदेवविरचितः सकलविकल्पानां त्रुट्यतां शिवपदमार्गे वसन् । कर्मचतुष्के विलयं गते आत्मा भवति अर्हन् ॥ १९५ ॥ हुइ भवति । कोऽसौ | अप्पा आत्मा । कथंभूतो भवति । अरहंतु अरिर्मोहनीयं कर्म तस्य हननाद् रजसी ज्ञानदृगावरणे तयोरपि हननाद् रहस्यशब्देनान्तरायस्तदभावाच्च देवेन्द्रादिविनिर्मितामतिशयवतीं पूजामईतीत्यईन् । कस्मिन् सति । कम्मचक्क विल गइ घातिकर्मचतुष्के विलयं गते सति । किं कुर्वन् सन् पूर्वम् । सिवपयमग्गि वसंतु शिवशब्दवाच्यं यन्मोक्षपदं तस्य योऽसौ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रितयैकलक्षणो मार्गस्तस्मिन् वसन् सन् । केषां सताम् । सयलवियप्पहं तुहाहं समस्तविकल्पानां नष्टानां समस्तरागादिविकल्पविनाशादनन्तरं भवतीति भावार्थ: ।। अथ ३०० [ अ० २, दोहा १९६ केवल-णाणि अणवरउ लोयालोउ मुणंतु । यि मे परमाणंदमउ अप्पा हुइ अरहंतु ॥ १९६ ॥ केवलज्ञानेनानवरतं लोकालोकं जानन् । नियमेन परमानन्दमयः आत्मा भवति अर्हन् ॥ १९६॥ हुइ भवति । कोऽसौ । अप्पा आत्मा । कथंभूतो भवति । अरहंतु पूर्वोक्तलक्षणो अर्हन् । किं कुर्वन् । लोयालोउ मुणंतु क्रमकरणव्यवधानरहितत्वेन कालत्रयविषयं लोकालोकं वस्तु वस्तुस्वरूपेण युगपत् जानन् सन् । केन । केवलणाणि लोकालोकप्रकाशकसकलविमलकेवल और अन्तराय इन चार घातियाकर्मोंके नाश होनेसे [ आत्मा ] यह जीव [ अर्हन् भवति ] अर्हत होता है, अर्थात् जब घातियाकर्म विलय हो जाते हैं, तब अरहंतपद पाता है, देवेंद्रादिकर पूजाके योग्य हो वह अरहंत है, क्योंकि पूजायोग्यको ही अर्हंत कहते हैं। पहले तो महामुनि हुआ [ शिवपदमार्गे वसन्] मोक्षपदके मार्गरूप सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमें ठहरता हुआ [ सकलविकल्पानां] समस्त रागादि विकल्पोंका [ त्रुट्यतां ] नाश करता है, अर्थात् जब समस्त रागादि विकल्पोंका नाश हो जावे, तब निर्विकल्प ध्यानके प्रसादसे केवलज्ञान होता है । केवलज्ञानीका नाम अर्हंत है, चाहे उसे जीवन्मुक्त कहो । जब अरहंत हुआ, तब भावमोक्ष हुआ, पीछे चार अघातिया कर्मोंको नाशकर सिद्ध हो जाता है । सिद्धको विदेहमोक्ष कहते । यही मोक्ष होनेका उपाय है ।।१९५|| Jain Education International अब केवलज्ञानकी ही महिमा कहते हैं - [ केवलज्ञानेन] केवलज्ञानसे [ लोकालोकं ] लोक अलोकको [ अनवरतं ] निरन्तर [ जानन् ] जानता हुआ [नियमेन ] निश्चयसे [ परमानंदमयः ] परम आनंदमयी [आत्मा ] यह आत्माही रत्नत्रयके प्रसादसे [ अर्हन्] अरहंत [ भवति ] होता है । भावार्थ- समस्त लोकालोकको एक ही समयमें केवलज्ञानसे जानता हुआ अरहंत कहलाता है | जिसका ज्ञान जाननेके क्रमसे रहित है, एक ही समयमें समस्त लोकालोकको प्रत्यक्ष जानता है, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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