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________________ दोहा १८७ ] परमात्मप्रकाशः २९३ प्रत्यक्षे समीचीनोऽसौ तथापि क्षमितव्यम्, अथवा वचनमात्रेणैव दोषग्रहणं करोति न च शरीरबाधां करोति तथापि क्षमितव्यम्, अथवा शरीरबाधामेव करोति न च प्राणविनाशं तथापि क्षमितव्यम्, अथवा प्राणविनाशमेव करोति न च भेदाभेदरत्नत्रयभावनाविनाशं चेति मत्वा सर्वतात्पर्येण क्षमा कर्तव्येत्यभिप्रायः ।। १८६ ॥ अथ सर्वचिन्तां निषेधयति युग्मेन जोइय चिंतिम किंपि तुहुँ जइ बीहउ दुक्खस्स । तिल-स-मित्तु वि सल्लडा वेयण करइ अवस्स ॥ १८७ ॥ योगिन् चिन्तय मा किमपि त्वं यदि भीतः दुःखस्य | तिलतुषमात्रमपि शल्यं वेदनां करोत्यवश्यम् ॥ १८७॥ चिंतिम चिन्तां मा कार्षीः किं पि तुहुं कामपि त्वं जोइय हे योगिन् । यदि किम् । जइ बीउ यदि विभेषि । कस्य । दुक्खस्स वीतरागतात्त्विकानन्दैकरूपात् पारमार्थिकसुखात्प्रतिपक्षभूतस्य नारकादिदुःखस्य । यतः कारणात् तिलतुसमित्तु वि सल्लडा तिलतुषमात्रमपि शल्यं वेrण करइ अवस्स वेदनां बाधां करोत्यवश्यं नियमेन । अत्र चिन्तारहितात्परमात्मनः सकाशाद्विलक्षणा या विषयकषायादिचिन्ता सा न कर्तव्या । काण्डादिशल्यमिव दुःखकारणत्वादिति भावार्थः ॥ १८७ ॥ कहता, लेकिन पीठ पीछे कहता है, सो पीठ पीछे तो राजाओंको भी बुरा कहते हैं, ऐसा जानकर उसे क्षमा करना कि प्रत्यक्ष तो मेरा मानभंग नहीं करता है, परोक्षकी बात क्या है । अथवा कदाचित् कोई प्रत्यक्ष मुँह आगे दोष कहे, तो तू यह विचार कि वचनमात्रसे मेरे दोष ग्रहण करता है, शरीरको तो बाधा नहीं करता, यह गुण हैं, ऐसा जान क्षमा ही कर । अथवा यदि कोई शरीरको भी बाधा करे, तो तू ऐसा विचार, कि मेरे प्राण तो नहीं हरता, यह गुण है । यदि कभी कोई पापी प्राण ही हर ले, तो यह विचार कि ये प्राण तो विनाशीक हैं, विनाशीक वस्तुके चले जानेकी क्या बात है । मेरा ज्ञानभाव अविनश्वर है, उसको तो कोई हर नहीं सकता, इसने तो मेरे बाह्य प्राण हर लिये है, परन्तु भेदाभेदरत्नत्रयकी भावनाका विनाश नहीं किया । ऐसा जानकर सर्वथा क्षमा ही करना चाहिये ||१८६ ॥ आगे सब चिन्ताओं का निषेध करते हैं - [ योगिन् ] हे योगी, [त्वं ] तू [ यदि ] यदि [ दुःखस्य ] वीतराग परम आनन्दके शत्रु जो नरकादि चारों गतियोंके दुःख उनसे [ भीतः ] डर गया है, तो तू निश्चिंत होकर परलोकका साधन कर, इस लोककी [ किमपि मा चिंतय ] कुछ भी चिंता मत कर । क्योंकि [तिलतुषमात्रमपि शल्यं ] तिलके भूसे मात्र भी शल्य [ वेदनां] मनको वेदना [ अवश्यं करोति ] निश्चयसे करता हैं | भावार्थ - चिन्तारहित आत्मज्ञानसे उल्टे जो विषय कषाय आदि विकल्पजाल उनकी चिन्ता कुछ भी नहीं करना । यह चिन्ता दुःखका ही कारण है, जैसे बाण आदिकी तृणप्रमाण भी सलाई महा दुःखका कारण है, जब वह शल्य निकले, तभी सुख होता है ||१८७|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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