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________________ २९२ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १८६अथ परेण दोषग्रहणे कृते कोपो न कर्तव्य इत्यभिप्रायं मनसि संपधार्य सूत्रमिदं पतिपादयति अवगुण-गहणइ महुतणइँ जइ जीवहँ संतोसु । तो तहँ सोक्खहँ हेउ हउ इउ मणिवि चइ रोसु ॥ १८६ ।। अवगुणग्रहणेन मदीयेन यदि जीवानां संतोषः । ततः तेषां सुखस्य हेतुरहं इति मत्वा त्यज रोषम् ॥ १८६ ॥ जइ जीवहं संतोसु यदि चेदज्ञानिजीवानां संतोषो भवति । केन । अवगुणगहणई निदोषिपरमात्मनो विलक्षणा ये दोषा अवगुणास्तेषां ग्रहणेन । कथंभूतेन । महुतणहं मदीयेन तो तहं सोक्खहं हेउ हर्ष यतः कारणान्मदीयदोषग्रहणेन तेषां मुखं जातं ततस्तेषामहं मुखस्य हेतुर्जातः इउ मण्णिवि चइ रोसु केचन परोपकारनिरताः परेषां द्रव्यादिकं दत्त्वा सुखं कुर्वन्ति मया पुनर्रव्यादिकं मुक्खापि तेषां सुखं कृतमिति मला रोपं त्यज । अथवा मदीया अनन्तज्ञानादिगुणा न गृहीतास्तैः किंतु दोषा एव गृहीता इति मखा च कोपं त्यज, अथवा ममैते दोषाः सन्ति सत्यमिदमस्य वचनं तथापि रोपं त्यज, अथवा ममैते दोषा न सन्ति तस्य वचनेन किमहं दोषी जातस्तथापि क्षमितव्यम् , अथवा परोक्षे दोषग्रहणं करोति न च उत्पन्न हो गया है, ऐसा भव्य जीव उसको मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, प्रमाद, योग, इन पाँचों आस्रवोंको छोडकर परमात्मतत्वमें सदैव भावना करनी चाहिये । यदि इसके आत्मभावना होवे तो भव-भ्रमण नहीं हो सकता ॥१८५॥ - आगे यदि कोई अपने दोष ग्रहण करे तो उसपर क्रोध नहीं करना, क्षमा करना, यह अभिप्राय मनमें रखकर व्याख्यान करते हैं-[मदीयेन अवगुणग्रहणेन] अज्ञानी जीवोंको परके दोष ग्रहण करनेसे हर्ष होता है, मेरे दोष ग्रहण करके [यदि जीवानां संतोषः] यदि जीवोंको हर्ष होता है; [ततः] तो मुझे यही लाभ है, कि [अहं] मैं [तेषां सुखस्य हेतुः] उनको सुखका कारण हुआ, [इति मत्वा] ऐसा मनमें विचारकर [रोषं त्यज] गुस्सा छोडो । भावार्थ-ज्ञानी गुस्सा नहीं करते, किंतु ऐसा विचारते हैं, कि यदि कोई परका उपकार करनेवाले परजीवोंको द्रव्यादि देकर सुखी करते हैं, मैंने कुछ द्रव्य नहीं दिया, उपकार नहीं किया, मेरे अवगुणसे ही सुखी हो गये, तो इसके समान दूसरी क्या बात है ? ऐसा जानकर हे भव्य, तू रोष छोड । अथवा ऐसा विचारे, कि मेरे अनंत ज्ञानादि गुण तो उसने नहीं लिये, दोष लिये वो निःशंक लो । जैसे घरमें कोई चोर आया, और उसने रत्न सुवर्णादि नहीं लिये, माटी पत्थर लिये तो लो, तुच्छ वस्तुके लेनेवालेपर क्या क्रोध करना, ऐसा जान रोष छोडना । अथवा ऐसा विचारे, कि जो यह दोष कहता है, वे सच कहता है, तो सत्यवादसे क्या द्वेष करना ? अथवा ये दोष मुझमें नहीं हुआ वह वृथा कहता है, तो उसके वृथा कहनेसे क्या मैं दोषी हो गया ? बिलकुल नहीं हुआ । ऐसा जानकर क्रोध छोड क्षमाभाव धारण करना चाहिये । अथवा यह विचारो कि वह मेरे मुँहके आगे नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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