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________________ -दोहा १८५ ] परमात्मप्रकाशः २९१ समाधिसमुत्पन्नपरमानन्दैकरूपमुखामृतास्वादेन मनो झटिति शीघ्रं विलयं याति द्रवीभूतं भवतीति भावार्थः ॥ १८४ ॥ अथ जीवः कर्मवशेन जातिभेदभिन्नो भवतीति निश्चिनोति लोउ विलक्खणु कम्म-वसु इत्थु भवंतरि एइ। चुज्जु कि जइ इहु अप्पि ठिउ इत्थु जि भवि ण पडेइ ॥ १८५ ॥ लोकः विलक्षणः कर्मवशः अत्र भवान्तरे आयाति । आश्चर्य किं यदि अयं आत्मनि स्थितः अत्रैव भवे न पतति ॥ १८५ ॥ लोउ इत्यादि । विलक्खणु षोडशवर्णिकासुवर्णवत्केवलज्ञानादिगुणसदृशो न सर्वजीवराशिसदृशात् परमात्मतत्त्वाद्विलक्षणो विसदृशो भवति । केन । ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रादिजातिभेदेन । कोऽसौ । लोउ लोको जनः । कथंभूतः सन् । कम्मवसु कर्मरहितशुद्धात्मानुभूतिभावनारहितेन यदुपार्जितं कर्म तस्य कर्मण अधीनः कर्मवशः । इत्थंभूतः सन् किं करोति । इत्यु भवंतरि एइ पञ्चपकारभवरहिताद्वीतरागपरमानन्दैकस्वभावात् शुद्धात्मद्रव्याद्विसदृशे अस्मिन् भवान्तरे संसारे समायाति चुज्जु कि इदं किमाश्चर्यं किंतु नैव, जइ इहु अप्पि ठिउ यदि चेदयं जीवः स्वशुद्धात्मनि स्थितो भवति तर्हि इत्थु जि भवि ण पडेइ अत्रैव भवे न पततीति इदमप्याश्चर्यं न भवतीति । अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञाखा संसारभयभीतेन भव्येन भवकारणमिथ्यावादिपञ्चास्रवान् मुक्खा द्रव्यभावानवरहिते परमात्मभावे स्थिखा च निरन्तरं भावना कर्तव्येति तात्पर्यम् ॥ १८५॥ परमानंदस्वरूप इस देहमें विराजमान परमब्रह्मका [मनसि] मनमें [लघु] शीघ्र [भावय] ध्यान करो, जो ब्रह्म अनंत ज्ञानादि गुणोंका आधार है, सर्वोत्कृष्ट हैं, [येन] जिसके ध्यान करनेसे [मनः] मनका विकार [झटिति] शीघ्र ही [विलीयते] विलीन हो जाता है ॥१८४॥ आगे जीवके कर्मके वशसे भिन्न-भिन्न स्वरूप जाति-भेदसे होते हैं, ऐसा निश्चय करते हैं-[विलक्षणः] सोलहवानीके सुवर्णकी तरह केवलज्ञानादि गुणकर समान जो परमात्मतत्व उससे भिन्न जो [लोकः] ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि जाति-भेदरूप जीव-राशि वह [कर्मवशः] कर्मसे उत्पन्न है, अर्थात् जाति-भेद कर्मके निमित्तसे हुआ है, और वे कर्म आत्मज्ञानकी भावनासे रहित अज्ञानी जीवने उपार्जन किये हैं, उन कर्मोंके अधीन जातिभेद हैं । जब तक कर्मोंका उपार्जन है तब तक [अत्र भवांतरे आयाति] इस संसारमें अनेक जाति धारण करता है, [अयं यदि] यदि यह जीव [आत्मनि स्थितः] आत्मस्वरूपमें लगे, तो [अत्रैव भवे] इसी भवमें [न पतति] नहीं पड़े-भ्रमण नहीं करे, [किं आश्चर्य] इसमें क्या आश्चर्य है ? कुछ भी नहीं ॥ भावार्थ-जब तक आत्मामें चित्त नहीं लगता, तब तक संसारमें भ्रमण करता हैं, अनेक भव धारण करता है, लेकिन जब यह आत्मदर्शी हुआ तब कर्मोंको भी उपार्जन नहीं करता, और भवमें भी नहीं भटकता । इसमें आश्चर्य नहीं है । संसार शरीर भोगोंसे उदास और जिसको भव-भ्रमणका भय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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