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________________ २९० योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १८४कर्म सइ आविउ दुर्धरपरीषहोपसर्गवशेन स्वयमुदयमागतं सत् खविउ मई निजपरमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नवीतरागसहजानन्दैकसुखरसास्वादद्रवीभूतेन परिणतेन मनसा क्षपितं मया सो स परं नियमेन लाहु जि लाभ एव कोइ कश्चिदपूर्व इति । अत्र केचन महापुरुषा दुर्धरानुष्ठानं कृखा वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थिखा च कर्मोदयमानीय तमनुभवन्ति, अस्माकं पुनः स्वयमेवोदयागतमिति मखा संतोषः कर्तव्य इति तात्पर्यम् ॥ १८३ ॥ अथ इदानीं परुषवचनं सोढुं न याति तदा निर्विकल्पात्मतत्त्वभावना कर्तव्येति प्रतिपादयति णिटुर-वयणु सुणेवि जिय जइ मणि सहण ण जाइ । तो लहु भावहि बंभु पर जिं मणु शत्ति विलाइ ॥ १८४ ।। निष्ठुरवचनं श्रुत्वा जीव यदि मनसि सोढुं न याति । ततो लघु भावय ब्रह्म परं येन मनो झटिति विलीयते ॥ १८४ ॥ जह यदि चेत् सहण ण जाइ सोढुं न याति । क मणि मनसि जिय हे मूढ जीव । किं कृता । सुणेवि श्रुखा । किम् णिठुरवयणु निष्ठुरं हृदयकर्णशूलवचनं तो तद्वचनश्रवणानन्तरं लहु शीघ्रं भावहि वीतरागपरमानन्दैकलक्षणनिर्विकल्पसमाधौ स्थिखा भावय कम् । बंभु ब्रह्मशब्दवाच्यनिजदेहस्थपरमात्मानम् । कयंभूतम् । परु परमानन्तज्ञानादिगुणाधारखात् परमुत्कृष्टं जिं येन परमात्मध्यानेन । किं भवति । मणु शत्ति विलाइ वीतरागनिर्विकल्प[उदयं आनीय] उदयमें लाकर [भोक्तव्यं भवति] भोगना चाहता था, [तत्] वह कर्म [स्वयं आगतं] आप ही आ गया, [मया क्षपितं] इससे मैं शांत चित्तसे फल सहनकर क्षय करूँ, [स कश्चित्] यह कोई [परं लाभः] महान ही लाभ हुआ ।। भावार्थ-जो महामुनि मुक्तिके अधिकारी हैं, वे उदयमें नहीं आये हुए कर्मोंको परम आत्मज्ञानकी भावनाके बलसे उदयमें लाकर उसका फल भोगकर शीघ्र निर्जरा कर देते हैं । और यदि वे पूर्वकर्म बिना उपायके सहज ही बाईस परीषह तथा उपसर्गके वशसे उदयमें आये हों, तो विषाद न करना किन्तु बहुत लाभ समझना । मनमें यह मानना कि हम तो उदीरणासे इन कर्मोंको उदयमें लाकर क्षय करते, परन्तु ये सहज ही उदयमें आये, यह तो बडा ही लाभ है । जैसे कोई बड़ा व्यापारी अपने ऊपरका कर्ज लोगोंका बुला बुलाकर देता है, यदि कोई बिना बुलाये सहज ही लेने आया हो, तो बडा ही लाभ है । उसी तरह कोई महापुरुष महान दुर्धर तप करके कर्मोंको उदयमें लाकर क्षय करते हैं, लेकिन वे कर्म अपने स्वयमेव उदयमें आये हैं, तो इसके समान दूसरा क्या है, ऐसा संतोष धारणकर ज्ञानीजन उदय आये हुए कर्मोंको भोगते हैं, परन्तु राग द्वेष नहीं करते ॥१८३॥ ___आगे यह कहते हैं कि यदि कोई कर्कश (कठोर) वचन कहे, और यह न कह सकता हो तो अपने कषायभाव रोकनेके लिये निर्विकल्प आत्मतत्वकी भावना करनी चाहिए-[जीव] हे जीव, [निष्ठुरवचनं श्रुत्वा] यदि कोई अविवेकी किसीको कठोर वचन कहे, उसको सुनकर [यदि] यदि [न सोढुं याति] न सह सके, [ततः] तो कषाय दूर करनेके लिये [परं ब्रह्म] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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