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-दोहा १८३ ]
परमात्मप्रकाश अथ दुःखजनकदेहघातकंशत्रुमपि मित्रं जानीहीति दर्शयति
इहु तणु जीवड तुज्झ रिउ दुक्खइँ जेण जणेइ। सो परु जाणहि मित्तु तुहुँ जो तणु एहु हणेइ ।। १८२ ॥ इयं तनुः जीव तव रिपुः दुःखानि येन जनयति ।
तं परं जानीहि मित्रं त्वं यः तनुमेतां हन्ति ॥ १८२ ॥ रिउ रिपुर्भवति । का । इहु तणु इयं तनुः कर्जी जीवड हे जीव तुज्झ तव । कस्मात् । दुक्खइं जेण जणेइ येन कारणेन दुःखानि जनयति सो परु तं परजनं जाणहि जानीहि । किम् । मित्तु परममित्रं तुहुं वं कर्ता । यः परः किं करोति । जो तणु एहु हणेइ यः कर्ता तनुमिमां प्रत्यक्षीभूतां हन्तीति । अत्र यदा वैरी देहविनाशं करोति तदा वीतरागचिदानन्दैकस्वभावपरमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नसुखामृतसमरसीभावे स्थित्वा शरीरघातकस्योपरि यथा पाण्डवैः कौरवकुमारस्योपरि द्वेषो न कृतस्तथान्यतपोधनैरपि न कर्तव्य इत्यभिप्रायः ॥ १८२ ॥ अथ उदयागते पापकर्मणि स्वस्वभावो न त्याज्य इति मनसि संभधार्य सूत्रमिदं कथयति
उदयह आणिवि कम्मु मइँ जं भुंजेवउ होइ।। तं सइ आविउ खविउ मइँ सो पर लाहु जि कोइ ॥ १८३ ॥ उदयमानीय कर्म मया यद् भोक्तव्यं भवति ।
तत् स्वयमागतं क्षपितं मया स परं लाभ एव कश्चित् ॥ १८३ ॥ जं यत् भुंजेवउ होइ भोक्तव्यं भवति । किं कृता । उदयहं आणिवि विशिष्टात्मभावनाबलेनोदयमानीय । किम् । कम्मु चिरसंचितं कर्म । केन । मई मया तं तत् पूर्वोक्तं
आगे दुःख उत्पन्न करनेवाला शत्रुरूप यह देह है, उसको तू मित्र मत समझ, ऐसा कहते हैं-[जीव] हे जीव, [इयं तनुः] यह शरीर [तव रिपुः] तेरा शत्रु है, [येन] क्योंकि [दुःखानि] दुःखोंको [जनयति] उत्पन्न करता है । [यः] जो [इमां तनुं] इस शरीरका [हंति] घात करे, [तं] उसको [त्वं] तुम [परं मित्रं] परममित्र [जानीहि] जानो ॥ भावार्थ-यह शरीर तेरा शत्रु होनेसे दुःख उत्पन्न करता है, इससे तू अनुराग मत कर और जो तेरे शरीरकी सेवा करता है, उससे भी राग मत कर, तथा जो तेरे शरीरका घात कर देवे, उसको शत्रु मत जान । जब कोई तेरे शरीरका विनाश करे, तब वीतराग चिदानन्द ज्ञानस्वभाव परमात्मतत्वकी भावनासे उत्पन्न जो परम समरसीभाव, उसमें लीन होकर शरीरके घातकपर द्वेष मत कर । जैसे महा धर्मस्वरूप युधिष्ठिर पांडव आदि पाँचों भाइयोंने दुर्योधनादिपर द्वेष नहीं किया । उसी तरह सभी साधुओंका यही स्वभाव है, कि अपने शरीरका जो घात करे, उससे द्वेष नहीं करते, सबके मित्र ही रहते हैं ।।१८२॥
आगे पूर्वोपार्जित पापके उदयसे दु:ख अवस्था आ जावे उसमें अपना धीरपना आदि स्वभाव न छोडे, ऐसा अभिप्राय मनमें रखकर व्याख्यान करते हैं-[यत्] जो [मया] मैं [कर्म] कर्मको
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