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योगीन्दुदेवविरचितः
[अ० २, दोहा १८८
किंच
मोक्खु म चिंतहि जोइया मोक्खु ण चिंतिउ होइ । जेण णिबद्धउ जीवडउ मोक्खु करेसइ सोइ ॥ १८८ ।। मोक्ष मा चिन्तय योगिन् मोक्षो न चिन्तितो भवति ।
येन निबद्धो जीवः मोक्षं करिष्यति तदेव ॥ १८८ ॥ मोक्खु इत्यादि । मोक्खु म चिंतहि मोक्षचिन्तां मा कार्षीस्त्वं जोइया हे योगिन् । यतः कारणात मोक्खु ण चिंतिउ होइ रागादिचिन्ताजालरहितः केवलज्ञानाद्यनन्तगुणव्यक्तिसहितो मोक्षः चिन्तितो न भवति । तर्हि कथं भवति । जेण णिबद्धउ जीवडउ येन मिथ्यावरागादिचिन्ताजालोपार्जितेन कर्मणा बद्धो जीवः सोइ तदेव कर्म शुभाशुभविकल्पसमूहरहिते शुद्धात्मतत्वस्वरूपे स्थितानां परमयोगिनां मोक्खु करेसइ अनन्तज्ञानादिगुणोपलम्भरूपं मोक्षं करिष्यतीति । अत्र यद्यपि सविकल्पावस्थायां विषयकषायाद्यपध्यानवश्वनाथ मोक्षमार्गे भावनादृढीकरणार्थं च "दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ती होउ मज्झं" इत्यादि भावना कर्तव्या तथापि वीतरागनिर्विकल्पपरमसमाधिकाले न कर्तव्येति भावार्थः ॥ १८८ ॥ __ अथ चतुर्विंशतिसूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये परमसमाधिव्याख्यानमुख्यत्वेन सूत्रषट्कमन्तरस्थलं कथ्यते । तद्यथा___आगे मोक्षकी भी चिन्ता नहीं करना, ऐसा कहते हैं- योगिन् ] हे योगी, अन्य चिन्ताकी तो बात ही क्या ? [मोक्षं मा चिंतय] मोक्षकी भी चिन्ता मत कर, [मोक्षः] क्योंकि मोक्ष [चिंतितो न भवति] चिन्ता करनेसे नहीं होता, वांछाके त्यागसे ही होता है, रागादि चिन्ताजालसे रहित केवलज्ञानादि अनंतगुणोंकी प्रगटता सहित जो मोक्ष है, वह चिंताके त्यागसे होता है । यही कहते हैं-[येन] जिन मिथ्यात्व-रागादि चिन्ता-जालोंसे उपार्जन किये कर्मोंसे [जीवः] यह जीव [निबद्धः] बँधा हुआ है, [तदेव] वे कर्म ही [मोक्षं] शुभाशुभ विकल्पके समूहसे रहित जो शुद्धात्मतत्वका स्वरूप उसमें लीन हुए परमयोगियोंका मोक्ष [करिष्यति] करेंगे ॥ भावार्थ-वह चिन्ताका त्याग ही तुझको निस्संदेह मोक्ष देगा । अनंत ज्ञानादि गुणोंकी प्रगटता वह मोक्ष है । यद्यपि विकल्प सहित जो प्रथम अवस्था उसमें विषय कषायादि खोटे ध्यानके निवारण करनेके लिये और मोक्षमार्गमें परिणाम दृढ करनेके लिये ज्ञानीजन ऐसी भावना करते हैं, कि चतुर्गतिके दुःखोंका क्षय हो, अष्ट कर्मोंका क्षय हो, ज्ञानका लाभ हो, पंचमगतिमें गमन हो, समाधिमरण हो,
और जिनराजके गुणोंकी सम्पत्ति मुझको हो । यह भावना चौथे पाँचवें छठे गुणस्थानमें करने योग्य है, तो भी ऊपरके गुणस्थानोंमें वीतराग निर्विकल्पसमाधिके समय नहीं होती ॥१८८॥ ___ आगे चौबीस दोहोंके स्थलमें परमसमाधिके व्याख्यानकी मुख्यतासे छह दोहा-सूत्र कहते हैं-[ये] जो कोई महान पुरुष [परमसमाधिमहासरसि] परमसमाधिरूप सरोवरमें [प्रविश्य]
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