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योगीन्दुदेवविरचितः
जेण सरूवि झाइयइ अप्पा एहु अणंतु ।
तेण सरूविं परिणवह जह फलिहउ-मणि मंतु ॥ १७३ ॥ येन स्वरूपेण ध्यायते आत्मा एषः अनन्तः ।
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[अ० २, दोहा १७४
तेन स्वरूपेण परिणमति यथा स्फटिकमणिः मन्त्रः ॥ १७३ ॥
जेण इत्यादि । तेण सरूविं परिणवइ तेन स्वरूपेण परिणमति । कोऽसौ कर्ता । अप्पा आत्मा एहु एष प्रत्यक्षीभूतः । पुनरपि किंविशिष्टः । अणंतु वीतरागानाकुलवलक्षणानन्तसुखाद्यनन्तशक्तिपरिणतत्वादनन्तः । तेन केन । जेण सरूवि झाइयइ येन शुभाशुभशुद्धोपयोगरूपेण ध्यायते चिन्त्यते । दृष्टान्तमाह । जह फलिहउमणि मंतु यथा स्फटिकमणिः जपापुष्पाद्युपाधिपरिणतः गारुडादिमन्त्रो वेति । अत्र विशेषव्याख्यानं तु - " येन येन स्वरूपेण युज्यते यन्त्रवाहकः । तेन तन्मयतां याति विश्वरूपो मणिर्यथा ॥” इति श्लोकार्थकथितदृष्टान्तेन ध्यातव्यः । इदमत्र तात्पर्यम् । अयमात्मा येन येन स्वरूपेण चिन्त्यते तेन तेन परिणमतीति ज्ञाखा शुद्धात्मपदप्राप्त्यर्थिभिः समस्तरागादिविकल्पसमूहं त्यक्त्वा शुद्धरूपेणैव ध्यातव्य इति ॥१७३॥ अथ चतुष्पादिकां कथयति -
अप्पा सो परमप्पा कम्म-विसेसें जायउ जप्पा ।
जाइँ जाइ अप्पे अप्पा तामइँ सो जि देउ परमप्पा || १७४ ॥ एष यः आत्मा स परमात्मा कर्मविशेषेण जातः जाप्यः ।
यदा जानाति आत्मना आत्मानं तदा स एव देवः परमात्मा || १७४ ॥
[आत्मा] आत्मा [ येन स्वरूपेण ] जिस स्वरूपसे [ ध्यायते ] ध्याया जाता है, [ तेन स्वरूपेण ] उसी स्वरूप [ परिणमति ] परिणमता है, [ यथा स्फटिकमणिः मंत्रः ] जैसे स्फटिकमणि और गारुडी आदि मंत्र है || भावार्थ - यह आत्मा शुभ, अशुभ, शुद्ध इन तीन उपयोगरूप परिणमता है । यदि अशुभोपयोगका ध्यान करे तो पापरूप परिणमे, शुभोपयोगका ध्यान करे तो पुण्यरूप परिणमे, और यदि शुद्धोपयोगको ध्यावे तो परमशुद्धरूप परिणमन करता है । जैसे स्फटिकमणि नीचे जैसा डंक लगाओ, अर्थात् श्याम हरा पीला लालमेंसे जैसा लगाओ, उसी रूप स्फटिकमणि परिणमता है, हरे डंकसे हरा और लालसे लाल भासता है । उसी तरह जीवद्रव्य जिस उपयोगरूप परिणमता है, उसीरूप भासता है । और गारुडी आदि मंत्रोंमेंसे गारुडीमंत्र गरुडरूप भासता है, जिससे कि सर्प डर जाता है । ऐसा ही कथन अन्य ग्रंथोंमें भी कहा है, कि जिस जिस रूपसे आत्मा परिणमता है, उस उस रूपसे आत्मा तन्मयी हो जाता है, जैसे स्फटिकमणि उज्ज्वल है, उसके नीचे जैसा डंक लगाओ वैसा ही भासता है । ऐसा जानकर आत्माका स्वरूप जानना चाहिए। जो शुद्धात्मपदकी प्राप्तिके चाहनेवाले हैं, उनको यही योग्य है, कि समस्त रागादिक विकल्पोंके समूहको छोडकर आत्माके शुद्ध रूपको ध्यावे और विकारोंपर दृष्टि न रक्खें ॥१७३॥ आगे चतुष्पदछंदमें आत्माके शुद्ध स्वरूपको कहते हैं - [ एष य आत्मा ] यह प्रत्यक्षभूत
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