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योगीदुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १७१ज्ञानदर्शनस्वभावात्परमात्मपदार्थाद्विलक्षणां चिन्तां जइ यदि चेत् तो ततश्चिन्ताभावात् । किं भवति । तुदृइ नश्यति । स कः। संसारु निःसंसारात् शुद्धात्मद्रव्याद् विलक्षणो द्रव्यक्षेत्रकालादिभेदभिन्नः पञ्चप्रकारः संसारः। यतः कारणात् । चिंतासत्तउ जिणवरु वि छद्मस्थावस्थायां शुभाशुभचिन्तासक्तो जिनवरोऽपि लहइ ण लभते न । कम् । हंसाचार संशयविभ्रमविमोहरहितानन्तज्ञानादिनिर्मलगुणयोगेन हंस इव इंसः परमात्मा तस्य आचारं रागादिरहितं शुद्धात्मपरिणाममिति । अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञाखा दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षाप्रभृतिसमस्तचिन्ताजालं त्यक्त्वापि चिन्तारहिते शुद्धात्मतत्त्वे सर्वतात्पर्येण भावना कर्तव्येति तात्पर्यम् ॥ १७ ॥ अथ
जोइय दुम्मइ कषुण तुहँ भव-कारणि ववहारि । बंभु पवंचहि जो रहिउ सो जाणिवि मणु मारि ॥ १७१ ॥ योगिन् दुर्मतिः का तव भवकारणे व्यवहारे ।
ब्रह्म प्रपञ्चैर्यद् रहितं तत् ज्ञात्वा मनो मारय ॥ १७१ ।। जोइय इत्यादि । जोइय हे योगिन् दुम्मइ कवुण तुहं दुर्मतिः का तवेयं भवकारणि ववहारि भवरहितात् शुभाशुभमनोवचनकायव्यापाररूपव्यवहारविलक्षणाच्च स्वशुद्धात्मद्रव्यात्पतिपक्षभूते पञ्चप्रकारसंसारकारणे व्यवहारे । तर्हि किं करोमीति चेत् । बंभु ब्रह्मशब्दवाच्यं स्वशुद्धात्मानं ज्ञाखा । कथंभूतं यत् । पवंचहिं जो रहिउ प्रपञ्चैर्मायापारखण्डैः यद्रहितम् । [हंसाचारं न लभते] परमात्माका आचरणरूप शुद्ध भावोंको नहीं पाते ॥ भावार्थ-हे योगी, निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव परमात्मपदार्थसे पराङ्मुख जो चिंता जाल उसे छोडेगा, तभी चिंताके अभावसे संसार भ्रमण टूटेगा । शुद्धात्मद्रव्यसे विमुख द्रव्य क्षेत्र काल भव भावरूप पाँच प्रकारके संसारसे तू मुक्त होगा । जब तक चिंतावान् है, तब तक निर्विकल्प ध्यानकी सिद्धि नहीं हो सकती,
दूसरोंकी तो क्या बात है ? जो तीर्थंकरदेव भी केवल अवस्थाके पहले जब तक कुछ शुभाशुभ चिन्ताकर सहित हैं, तब तक वे भी रागादि रहित शुद्धोपयोग परिणामोंको नहीं पा सकते । संशय विमोह विभ्रम रहित अनंत ज्ञानादि निर्मलगुण सहित हंसके समान उज्ज्वल परमात्माके शुद्ध भाव हैं, वे चिंताको छोडे बिना नहीं होते । तीर्थंकरदेव भी मुनि होकर निश्चिंत व्रत धारण करते हैं, तभी परमहंस दशा पाते हैं, ऐसा व्याख्यान जानकर देखे सुने भोगे हुए भोगोंकी वांछा आदि समस्त चिंता-जालको छोडकर परम निश्चिंत हो, शुद्धात्माकी भावना करना योग्य है ।।१७०।।
आगे श्रीगुरु मुनियोंको उपदेश देते हैं, कि मनको मारकर परब्रह्मका ध्यान करो-[योगिन्] हे योगी, [तव का दुर्मतिः] तेरी क्या खोटी बुद्धि है, जो तू [भवकारणे व्यवहारे] संसारके कारण उद्यमरूप व्यवहार करता है । अब तू [प्रपंचैः रहितं] मायाजालरूप पाखंडोंसे रहित [यत् ब्रह्म] जो शुद्धात्मा है, [तत् ज्ञात्वा] उसको जानकर [मनो मारय] विकल्प-जालरूप मनको मार ॥ भावार्थ-वीतराग स्वसंवेदनज्ञानसे शुद्धात्माको जानकर शुभाशुभ विकल्प-जालरूप मनको
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