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________________ २८१ -दोहा १७० ] परमात्मप्रकाशः व्याख्यानं ज्ञासा उपासकाध्ययनशास्त्रकथितमार्गेण विधिद्रव्यदातृपात्रलक्षणविधानेन दानं दातव्यं पूजावन्दनादिकं च कर्तव्यमिति भावार्थः ॥१६८॥ अथ निश्चयेन चिन्तारहितध्यानमेव मुक्तिकारणमिति प्रतिपादयति चतुष्कलेन अद्भुम्मीलिय-लोयणिहिजोउ कि झंपियएहि । एमुइ लब्भइ परम-गइ णिचिंति ठियएहि ॥ १६९ ॥ अर्धोन्मीलितलोचनाभ्यां योगः किं आच्छादिताभ्याम् । एवमेव लभ्यते परमगतिः निश्चिन्तं स्थितैः ॥ १६९ ॥ अद्धम्मीलियलोयणिहि अर्धोन्मीलितलोचनपुटाभ्यां जोउ किं योगो ध्यानं किं भवति अपि तु नैव । न केवलमर्धोन्मीलिताभ्याम् । झंपियएहिं झंपिताभ्यामपि लोचनाभ्यां नैवेति । तर्हि कथं लभ्यते । एमुइ लब्भइ एवमेव लभ्यते लोचनपुटनिमीलनोन्मीलननिरपेक्षैः । का लभ्यते । परमगइ केवलज्ञानादिपरमगुणयोगात्परमगतिर्मोक्षगतिः । कैः लभ्यते । णिचिंति ठियएहिं ख्यातिपूजालाभप्रभृतिसमस्तचिन्ताजालरहितैः पुरुषैश्चिन्तारहितैः स्वशुद्धात्मरूपस्थितश्चेत्यभिप्रायः ॥ १६९ ॥ अथ जोइय मिल्लहि चिन्त जइ तो तुट्टइ संसारु । चिंतासत्तउ जिणवर वि लहइ ण हंसाचारु ॥ १७० ।। योगिन् मुश्चसि चिन्तां यदि ततः त्रुट्यति संसारः । चिन्तासक्तो जिनवरोऽपि लभते न हंसचारम् ॥ १७० ॥ जोइय इत्यादि । जोइय हे योगिन् मिल्लहि मुश्चसि । काम् । चिन्तारहिताद्विशुद्धऔर पंचपरमेष्ठीकी वंदना करना, ये ही व्यवहारनयकर कल्याणके उपाय हैं ॥१६८॥ __ आगे निश्चयसे चिन्ता रहित ध्यान ही मुक्तिका करण है, ऐसा कहते हैं- [अर्धान्मीलितलोचनाभ्यां] आधे उघडे हुए नेत्रोंसे अथवा [झंपिताभ्यां] बन्द हुए नेत्रोंसे [किं] क्या [योगः] ध्यानकी सिद्धि होती है ? कभी नहीं । [निश्चिन्तं स्थितैः] जो चिन्ता रहित एकाग्रमें स्थित हैं, उनको [एवमेव] इसी तरह [लभ्यते परमगतिः] स्वयमेव परमगति (मोक्ष) मिलती है ॥ भावार्थ-ख्याति (बडाई) पूजा (अपनी प्रतिष्ठा) और लाभ इनको आदि लेकर समस्त चिन्ताओंसे रहित जो निश्चिंत पुरुष हैं, वे ही शुद्धात्मस्वरूपमें स्थिरता पाते हैं, उन्हींके ध्यानकी सिद्धि है, और वे ही परमगतिके पात्र हैं ।।१६९॥ आगे फिर भी चिन्ताका ही त्याग बतलाते हैं-[योगिन्] हे योगी, [यदि] यदि तू [चिंतां मुंचसि] चिन्ताओंको छोडेगा [ततः] तो [संसारः] संसारका भ्रमण [त्रुट्यति] छूट जायगा क्योंकि [चिंतासक्तः] चिन्तामें लगे हुए [जिनवरोऽपि] छद्मस्थ अवस्थावाले तीर्थंकरदेव भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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