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________________ २८० योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १६८शुद्धात्मद्रव्यानुभवरूपेण ध्यानामिना दग्धं नैव । किमु छिज्जइ संसारु कथं छिद्यते संसार इति । अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा निरन्तरं शुद्धात्मद्रव्यभावना कर्तव्येति तात्पर्यम् ।। १६६-६७॥ अथ दानपूजापश्चपरमेष्ठिवन्दनादिरूपं परंपरया मुक्तिकारणं श्रावकथमें कथयति दाणु ण दिण्णउ मुणिवरहँ ण वि पुजिउ जिण-णाहु । पंच ण वंदिय परम-गुरू किमु होसइ सिव-लाहु ।। १६८ ॥ दानं न दत्तं मुनिवरेभ्यः नापि पूजितः जिननाथः । पञ्च न वन्दिताः परमगुरवः किं भविष्यति शिवलाभः ॥ १६८ ॥ दाणु इत्यादि । दाणु ण दिण्णउ आहाराभयभैषज्यशास्त्रभेदेन चतुर्विधदानं भक्तिपूर्वकं न दत्तम् । केषाम् । मुणिवरहं निश्चयव्यवहाररत्नत्रयाराधकानां मुनिवरादिचतुर्विधसंघस्थितानां पात्राणां ण वि पुजिउ जलधारया सह गन्धाक्षतपुष्पाधष्टविधपूजया न पूजितः । कोऽसौ । जिणणाहु देवेन्द्रधरणेन्द्रनरेन्द्रपूजितः केवलज्ञानाद्यनन्तगुणपरिपूर्णः पूज्यपदस्थितो जिननाथः पंच ण वंदिय पञ्च न वन्दिताः । के ते । परमगुरू त्रिभुवनाधीशवन्धपदस्थिता अर्हत्सिद्धाः त्रिभुवनेशवन्धमोक्षपदाराधकाः आचार्योपाध्यायसाधवश्चेति पञ्च गुरवः, किमु होसइ सिवलाहु शिवशब्दवाच्यमोक्षपदस्थितानां तदाराधकानामाचार्यादीनां च यथायोग्यं दानपूजावन्दनादिकं न कृतम् , कथं शिवशब्दवाच्यमोक्षसुखस्य लाभो भविष्यति न कथमपीति । अत्रेदं व्याख्यान जानकर सदैव शुद्धात्मस्वरूपकी भावना करनी चाहिये ॥१६६-१६७।। आगे दान पूजा और पंचपरमेष्ठीकी वंदना आदि परम्परा मुक्तिका कारण जो श्रावकधर्म उसे कहते हैं-[दानं] आहारादि दान [मुनिवराणां] मुनीश्वर आदि पात्रोंको [न दत्तं] नहीं दिया, [जिननाथः] जिनेंद्रभगवानको भी [नापि पूजितः] नहीं पूजा, [पंच परमगुरवः] अरहंत आदिक पाँचपरमेष्ठी [न वंदिताः] भी नहीं पूजे, तब [शिवलाभः] मोक्षकी प्राप्ति [किं भविष्यति] कैसे हो सकती है ? भावार्थ-आहार, औषध, शास्त्र और अभयदान-ये चार प्रकारके दान भक्तिपूर्वक पात्रोंको नहीं दिये, अर्थात् निश्चय व्यवहाररत्नत्रयके आराधक जो यति आदिक चार प्रकार संघ उनको चार प्रकारका दान भक्तिकर नहीं दिया, और भूखे जीवोंको करुणाभावसे दान नहीं दिया । इंद्र, नागेंद्र, नरेन्द्र आदिकर पूज्य केवलज्ञानादि अनंतगुणोंकर पूर्ण जिननाथकी पूजा नहीं की, जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फलसे पूजा नहीं की, और तीन लोककर वंदने योग्य ऐसे अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु इन पाँचपरमेष्टियोंकी आराधना नहीं की । सो हे जीव, इन कार्योंके विना तुझे मुक्तिका लाभ कैसे होगा ? क्योंकि मोक्षकी प्राप्तिके ये ही उपाय है । जिनपूजा, पंचपरमेष्ठीकी वंदना और चार संघको चार प्रकार दान, इनके विना मुक्ति नहीं हो सकती । ऐसा व्याख्यान जानकर सातवें उपासकाध्ययन अंगमें कही गई जो दान पूजा वंदनादिककी विधि वही करने योग्य है । शुभ विधिसे न्यायकर उपार्जन किया अच्छा द्रव्य वह दातारके अच्छे गुणोंको धारणकर विधिसे पात्रको देना, जिनराजकी पूजा करना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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