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________________ -दोहा १६७ ] परमात्मप्रकाशः २७९ सकला अपि संगा न मुक्ताः नैव कृत उपशमभावः । शिवपदमार्गोऽपि मतो नैव यत्र योगिनां अनुरागः ॥ १६६ ॥ घोरं न चीर्णं तपश्चरणं यत् निजबोधस्य सारम् । पुण्यमपि पापमपि दग्धं नैव किं छिद्यते संसारः ॥ १६७ ॥ सयल वि इत्यादि । सयल वि समस्ता अपि संग मिथ्यावादिचतुर्दशभेदभिन्ना आभ्यन्तराः क्षेत्रवास्वादिबहुभेदभिन्ना बाह्या अपि संगाः परिग्रहाःण मिल्लिया न मुक्ताः। पुनरपि किं न कृतम् । णवि किउ उवसमभाउ जीवितमरणलाभालाभसुखदुःखादिसमताभावलक्षणो नैव कृतः उपशमभावः । पुनश्च किं न कृतम् । सिवपयमग्गु वि मुणिउ णवि “शिवं परमकल्याणं निर्वाणं शान्तमक्षयम् । प्राप्तं मुक्तिपदं येन स शिवः परिकीर्तितः॥" इति वचनात् शिवशब्दवाच्यो योऽसौ मोक्षस्तस्य मार्गोऽपि न ज्ञातः । कथंभूतो मार्गः । स्वशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपः। यत्र मार्गे किम् । जहिं जोइहिं अणुराउ यत्र निश्चयमोक्षमार्गे परमयोगिनामनुरागस्तात्पर्यम् । न केवलं मोक्षमार्गोऽपि न ज्ञातः । घोरु ण चिण्णउ तवचरणु घोरं दुर्धरं परीषहोपसर्गजयरूपं नैव चीर्णं न कृतम् । किं तत् । अनशनादिद्वादशविधं तपश्चरणम् । यत्कथंभूतम् । जं णियषोहहं सारु यत्तपश्चरणं वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनलक्षणेन निजबोधेन सारभूतम् । पुनश्च किं न कृतम् । पुण्णु वि पाउ वि निश्चयनयेन शुभाशुभनिगलद्वयरहितस्य संसारिजीवस्य व्यवहारेण सुवर्णलोहनिगलद्वयसदृशं पुण्यपापद्वयमपि दड्दु णवि पुण्य तथा पाप ये दोनों [नैव दग्धं] नहीं भस्म किये, तो [संसारः] संसार [किं छिद्यते] कैसे छूट सकता है ? ॥ भावार्थ-मिथ्यात्व (अतत्व श्रद्धान) राग (प्रीतिभाव) दोष (वैरभाव) वेद (स्त्री पुरुष नपुंसक) क्रोध मान माया लोभरूप चार कषाय, और हास्य रति अरति शोक भय ग्लानि-ये चौदह अंतरंग परिग्रह, क्षेत्र (ग्रामादिक) वास्तु (गृहादिक) हिरण्य (रुपया पैसा मुहर आदि) सुवर्ण (गहने आदि) धन (हाथी घोडा आदि) धान्य (अन्नादि) दासी, दास, कुप्य (वस्त्र तथा सुगंधादिक), भांड (बर्तन आदि) ये दस तरहके बाह्य परिग्रह, इस प्रकार बाह्य अभ्यंतर परिग्रहके चौबीस भेद हुए, इनको नहीं छोडा । जीवित, मरण, सुख, दुःख, लाभ, अलाभादिमें समान भाव कभी नहीं किया, कल्याणरूप मोक्षका मार्ग सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र भी नहीं जाने । निजस्वरूपका श्रद्धान, निजस्वरूपका ज्ञान, और निजस्वरूपका आचरणरूप निश्चयरत्नत्रय तथा नव पदार्थोंका श्रद्धान, नव पदार्थोंका ज्ञान, और अशुभ क्रियाका त्यागरूप व्यवहाररत्नत्रय-ये दोनों ही मोक्षके मार्ग है, इन दोनोंमेंसे निश्चयरत्नत्रय तो साक्षात् मोक्षका मार्ग है और व्यवहाररत्नत्रय परम्पराय मोक्षका मार्ग है । ये दोनों मैंने कभी नहीं जाने, संसारका ही मार्ग जाना । अनशनादि बारह प्रकारका तप नहीं किया, बाईस परीषह नहीं सहन की । तथा पुण्य सुवर्णकी बेडी, पाप लोहेकी बेडी, ये दोनों बंधन निर्मल आत्मध्यानरूपी अग्निसे भस्म नहीं किये । इन बातोंके विना किये संसारका विच्छेद नहीं होता, संसारसे मुक्त होनेके ये ही कारण हैं । ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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