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________________ २७८ योगीदुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १६७अथ देहि वसंतु वि णवि मुणिउ अप्पा देउ अणंतु । अंबरि समरसि मणु धरिवि सामिय ण? णिभंतु ॥ १६५ ।। देहे वसन्नपि नैव मतः आत्मा देवः अनन्तः । अम्बरे समरसे मनः धृत्वा स्वामिन् नष्टः निर्धान्तः ॥ १६५ ॥ देहि वसंतु वि इत्यादि । देहि वसंतु वि व्यवहारेण देहे वसन्नपि णवि मुणिउ नैव ज्ञातः। कोऽसौ । अप्पा निजशुद्धात्मा। किविशिष्टः । देउ आराधनायोग्यः केवलज्ञानाद्यनन्तगुणाधारवेन देवः परमाराध्यः । पुनरपि किंविशिष्टः। अणंतु अनन्तपदार्थपरिच्छित्तिकारणखादविनश्वरवादनन्तः। किं कृखा। मणु धरिवि मनो धृत्वा । क । अंबरि अम्बरशब्दवाच्ये पूर्वोक्तलक्षणे रागादिशून्ये निर्विकल्पसमाधौ । कथंभूते । समरसि वीतरागतात्त्विकमनोहरानन्दस्यन्दिनि समरसीभावे साध्ये । सामिय हे स्वामिन् । प्रभाकरभट्टः पश्चात्तापमनुशयं कुर्वन्नाह । किं ब्रूते । णटु णिभंतु इयन्तं कालमित्थंभूतं परमात्मोपदेशमलभमानः सन् निर्धान्तो नष्टोऽहमित्यभिप्रायः॥ १६५ ॥ एवं परमोपदेशकथनमुख्यखेन सूत्रदशकं गतम् । अथ परमोपशमभावसहितेन सर्वसंगपरित्यागेन संसारविच्छेदं भवतीति युग्मेन निश्चिनोति सयल वि संग ण मिल्लिया णवि किउ उवसम-भाउ । सिव-पय-मग्गु वि मुणिउ णवि जहिजोइहि अणुराउ ॥ १६६ ॥ घोरु ण चिण्णउ तव-चरणु जं णिय-बोहहँ सारु। पुण्णु वि पाउ वि दड्दु णवि किमु छिजइ संसारु ॥ १६७ ।। ___आगे फिर भी शिष्य प्रश्न करता है-स्वामिन्] हे स्वामी, [देहे वसन्नपि] व्यवहारनयकर देहमें रहता हुआ भी [आत्मा देवः] आराधने योग्य आत्मा [अनन्तः] अनन्त गुणोंका आधार [नैव मतः] मैंने अज्ञानतासे नहीं जाना । क्या करके [समरसे] समान भावरूप [अंबरे] निर्विकल्पसमाधिमें [मनः धृत्वा] मन लगा कर । इसलिये अब तक [नष्टो निर्धान्तः] निस्संदेह नष्ट हुआ || भावार्थ-प्रभाकरभट्ट पछताता हुआ श्रीयोगींद्रदेवसे विनती करता है, कि हे स्वामिन्; मैंने अबतक रागादि विभाव रहित निर्विकल्पसमाधिमें मन लगाकर आत्म-देव नहीं जाना, इसलिये इतने काल तक संसारमें भटका, निजस्वरूपकी प्राप्तिके बिना मैं नष्ट हुआ । अब ऐसा उपदेश करें कि जिससे भ्रम मिट जावे ।१६५। इस प्रकार परमोपदेशके कथनकी मुख्यतासे दस दोहे कहे हैं। आगे परमोपदेश भाव सहित सब परिग्रहका त्याग करनेसे संसारका विच्छेद होता है, ऐसा दो दोहोंमें निश्चय करते हैं सिकला अपि संगाः] सब परिग्रह भी [न मुक्ताः] नहीं छोड़े, [उपशमभावः नैव कृतः] समभाव भी नहीं किया [यत्र योगिनां अनुरागः] और जहाँ योगीश्वरोंका प्रेम है, ऐसा [शिवमार्गोऽपि] मोक्षपद भी [नैव मतः] नहीं जाना, [घोरं तपश्चरणं] महा दुर्धर तप [न चीर्णं ] नहीं किया, [यत्] जो कि [निजबोधेन सारं] आत्मज्ञानकर शोभायमान है, [पुण्यमपि पापमपि] और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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