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________________ २७२ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १६०सहु स्वसंवेद्यमानपरमात्मना सह । पुनरपि कि येषाम् । पुण्णु वि पाउ ण जाहं शुद्धबुद्धैकस्वभावपरमात्मनो विलक्षणं पुण्यपापद्वयमिति न येषामित्यभिप्रायः ॥ १५९ ॥ अथ उव्वस वसिया जो करइ वसिया करइ जु सुण्णु । बलि किन्जउँ तसु जोइयहि जासु ण पाउ ण पुण्णु ॥ १६० ।। उद्वसान् वसितान् यः करोति वसितान् करोति यः शून्यान् । बलिं कुर्वेऽहं तस्य योगिनः यस्य न पापं न पुण्यम् ॥ १६० ॥ उव्वस इत्यादि । उव्वस उद्वसान् शून्यान् । कान् । वीतरागतात्त्विकचिदानन्दोच्छलननिर्भरानन्दशुद्धात्मानुभूतिपरिणामान् परमानन्दनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानबलेनेदानीं विशिष्टज्ञानकाले वसिया करइ तेनैव स्वसंवेदनज्ञानेन वसितान् भरितावस्थान् करोति जो यः परमयोगी सुण्णु निश्चयनयेन शुद्धचैतन्यनिश्चयप्राणस्य हिंसकलान्मिथ्याखविकल्पजालमेव निश्चयहिंसा तत्प्रभृतिसमस्तविभावपरिणामान् स्वसंवेदनज्ञानलाभात्पूर्व वसितानिदानीं शून्यान् करोतीति बलि किज्जलं तसु जोइयहि बलिर्मस्तकस्योपरितनभागेनावतारणं क्रियेऽहमिति तस्य योगिनः। एवं श्रीयोगीन्द्रदेवाः गुणप्रशंसां कुर्वन्ति। पुनरपि किं यस्य योगिनः। जासुण यस्य न। किम् । पाउ ण पुण्णु वीतरागशुद्धात्मतत्त्वाद्विपरीतं न पुण्यपापद्वयमिति तात्पर्यम् ॥१६०॥ ___ अथैकसूत्रेण प्रश्नं कृता सूत्रचतुष्टयेनोत्तरं दत्त्वा च तमेव पूर्वसूत्रपञ्चकेनोक्तं निर्विकल्प आगे फिर भी योगीश्वरोंकी प्रशंसा करते हैं-यः] जो [उद्वसान्] ऊजड है, अर्थात् पहले कभी नहीं हुए ऐसे शुद्धोपयोगरूप परिणामोंको [वसितान्] स्वसंवेदनज्ञानके बलसे बसाता है, अर्थात् अपने हृदयमें स्थापन करता है, और [यः] जो [वसितान्] पहलेके बसे हुए मिथ्यात्वादि परिणाम हैं, उनको [शून्यान्] ऊजड करता है, उनको निकाल देता है, [तस्य योगिनः] उस योगीकी [अहं] मैं [बलिं] पूजा [कुर्वे] करता हूँ, [यस्य] जिसके [न पापं न पुण्यं] न तो पाप है और न पुण्य है ।। भावार्थ-जो प्रगटरूप नहीं बसते हैं अनादिकालके वीतराग चिदानन्दस्वरूप शुद्धात्मानुभूतिरूप शुद्धोपयोग परिणाम उनको अब निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानके बलसे बसाता है, निज स्वादनरूप स्वाभाविक ज्ञानकर शुद्ध परिणामोंकी बस्ती निज घटरूपी नगरमें भरपूर करता है । और अनादिकालके जो शुद्ध चैतन्यरूप निश्चयप्राणोंके घातक ऐसे मिथ्यात्व रागादिरूप विकल्पजाल है, उनको निज स्वरूप नगरसे निकाल देता है, उनको ऊजड कर देता है, ऐसे परमयोगीकी मैं बलिहारी हूँ, अर्थात् उसके मस्तकपर मैं अपनेको वारता हूँ । इस प्रकार श्रीयोगींद्रदेव परमयोगियोंकी प्रशंसा करते हैं । जिन योगियोके वीतराग शुद्धात्मतत्वसे विपरीत पुण्यपाप दोनों ही नहीं है ।१६०। __ आगे एक दोहेमें शिष्यका प्रश्न और चार दोहोंमें प्रश्नका उत्तर देकर निर्विकल्पसमाधिरूप परम उपदेशको फिर भी विस्तारसे कहते हैं-[स्वामिन्] हे स्वामी, मुझे [तं उपदेशं] उस उपदेशको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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