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परमात्मप्रकाशः
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-दोहा १६२ ] समाधिरूपं परमोपदेशं पुनरपि विवृणोति पञ्चकलेन
तुदृइ मोहु तडित्ति जहि मणु अत्थवणहँ जाइ । सो सामइ उवएसु कहि अण्णे देविं काइँ ॥ १६१ ॥ त्रुट्यति मोहः झटिति यत्र मनः अस्तमनं याति ।
तं स्वामिन् उपदेश कथय अन्येन देवेन किम् ॥ १६१ ॥ तुट्टइ इत्यादि । तुट्टइ नश्यति । कोऽसौ । मोहु निर्मोहशुद्धात्मद्रव्यप्रतिपक्षभूतो मोहः तडित्ति झटिति जहिं मोहोदयोत्पन्नसमस्तविकल्परहिते यत्र परमात्मपदार्थे । पुनरपि किं यत्र। मणु अत्यवणहं जाइ निर्विकल्पात शुद्धात्मस्वभावाद्विपरीतं नानाविकल्पजालरूपं मनो वास्तं गच्छति सो सामिय उवएसु कहि हे स्वामिन् तदुपदेशं कथयेति प्रभाकरभट्टः श्रीयोगीन्द्रदेवान् पृच्छति । अण्णे देविं काई निर्दोषिपरमात्मनः परमाराध्यात्सकाशादन्येन देवेन किं प्रयोजनमित्यर्थः ॥ १६१ ॥ इति प्रभाकरभट्टप्रश्नसूत्रमेकं गतम् । अथोत्तरम्
णास-विणिग्गउ सासडा अंबरि जेत्थु विलाइ । तुदृइ मोहु तड त्ति तहि मणु अत्थवणहँ जाइ ॥ १६२ ॥ नासाविनिर्गतः श्वासः अम्बरे यत्र विलीयते ।
त्रुट्यति मोहः झटिति तत्र मनः अस्तं याति ॥ १६२ ॥ णासविणिग्गउ इत्यादि । णासविणिग्गउ नासिकाविनिर्गतः सासडा उच्छ्वासः अंबरि मिथ्यावरागादिविकल्पजालरहिते शून्ये अम्बरशब्दवाच्ये जित्थु यत्र तात्त्विकपरमा[कथय] कहो [ यत्र] जिससे [मोहः] मोह [झटिति] शीघ्र [त्रुट्यति] छूट जावे, [मनः] और चंचल मन [अस्तमनं] स्थिरताको [याति] प्राप्त हो जावे, [अन्येन देवेन किं] दूसरे देवोंसे क्या प्रयोजन है ? भावार्थ-प्रभाकरभट्ट श्रीयोगींद्रदेवसे प्रश्न करते हैं, कि हे स्वामी, वह उपदेश कहो कि जिससे निर्मोह शुद्धात्मद्रव्यसे पराङ्मुख मोह शीघ्र जुदा हो जावे, अर्थात् मोहके उदयसे उत्पन्न समस्त विकल्प-जालोंसे रहित जो परमात्मा पदार्थ उसमें मोह-जालका लेश भी न रहे, और निर्विकल्प शुद्धात्मभावनासे विपरीत नाना विकल्पजालरूपी चंचल मन वह अस्त हो जावे । हे स्वामी, निर्दोष परमाराध्य जो परमात्मा उससे अन्य जो मिथ्यात्वी देव उनसे मेरा क्या मतलब है ? ऐसा शिष्यने श्रीगुरुसे प्रश्न किया उसका एक दोहा-सूत्र कहा ।।१६१॥
आगे श्रीगुरु उत्तर देते हैं-[नासाविनिर्गतः श्वासः] नाकसे निकला जो श्वास वह [यत्र] जिस [अंबरे] निर्विकल्पसमाधि [विलीयते] मिल जावे, [तत्र] उसी जगह [मोहः] मोह [झटिति] शीघ्र [त्रुट्यति] नष्ट हो जाता है, [मनः] और मन [अस्तं याति] स्थिर हो जाता है ।। भावार्थ- नासिकासे निकले जो श्वासोच्छ्वास हैं, वे अम्बर अर्थात् आकाशके समान निर्मल
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