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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १५३अथ
जोइय देहु परिचयहि देहु ण भल्लउ होइ । देह-विभिण्णउ णाणमउ सो तुहुँ अप्पा जोइ ॥ १५२ ॥ योगिन् देहं परित्यज देहो न भद्रः भवति ।
देहविभिन्नं ज्ञानमयं तं त्वं आत्मानं पश्य ॥ १५२ ॥ जोइय इत्यादि । जोइय हे योगिन् देहु परिचयहि शुचिदेहान्नित्यानन्दैकस्वभावात् शुद्धात्मद्रव्याद्विलक्षणं देहं परित्यज । कस्मात् । देहु ण भल्लउ होइ देहो भद्रः समीचीनो न भवति । तर्हि किं करोमीति प्रश्ने कृते प्रत्युत्तरं ददाति । देहविभिण्णउ देहविभिन्नं णाणमउ ज्ञानेन निर्वृत्तं केवलज्ञानाविनाभूतानन्तगुणमयं सो तुहुं अप्पा जोइ तं पूर्वोक्तलक्षणमात्मानं वं कर्ता पश्येति । अयमत्र भावार्थः । “चंडो ण मुयइ वेरं भंडणसीलो य धम्मदयरहिओ। दुट्ठो ण य एदि वसं लक्रवणमेयं तु किण्हस्स॥” इति गाथाकथितलक्षणा कृष्णलेश्या, धनधान्यादितीव्रमूर्छाविषयाकांक्षादिरूपा नीललेश्या, रणे मरणं मार्थयति स्तूयमानः संतोषं करोतीत्यादिलक्षणा कापोतलेश्या च, एवं लेश्यात्रयप्रभृतिसमस्तविभावत्यागेन देहाद्भिन्नमात्मानं भावय इति॥१५२॥ अथ
दुक्खहँ कारणु मुणिवि मणि देहु वि एहु चयंति ।
जित्थु ण पावहि परमसुहु तित्थु कि संत वसंति ।। १५३ ॥ [ज्ञानमयं] ज्ञानादि गुणमय [तं आत्मानं] ऐसे आत्माको [त्वं] तू [पश्य] देख ॥ भावार्थ-नित्यानंद अखंड स्वभाव जो शुद्धात्मा उससे जुदा और दुःखका मूल तथा महान अशुद्ध जो शरीर उससे भिन्न आत्माको पहचान, और कृष्ण नील कापोत इन तीन अशुभ लेश्याको आदि लेकर सब विभावभावोंको त्यागकर निजस्वरूपका ध्यान कर । ऐसा कथन सुनकर शिष्यने पूछा, कि हे प्रभो, इन खोटी लेश्याओंका क्या स्वरूप है? तब श्रीगुरु कहते हैं-कृष्णलेश्याका धारक वह है जो अधिक क्रोधी होवे, कभी बैर न छोडे, उसका बैर पत्थरकी लकीरकी तरह हो, महा विषयी हो, परजीवोंकी हँसी उडानेमें जिसके शंका न हो, अपनी हँसी होनेका जिसको भय न हो, जिसका स्वभाव लज्जा रहित हो, दया-धर्मसे रहित हो, और अपनेसे बलवानके वशमें हो, गरीबको सतानेवाला हो, ऐसा कृष्णलेश्यावालेका लक्षण कहा | नीललेश्यावालेके लक्षण कहते हैं, सो सुनो-जिसके धन-धान्यादिककी अति ममता हो, और महा विषयाभिलाषी हो, इन्द्रियोंके विषय सेवता हुआ तृप्त न हो । कापोतलेश्याका धारक रणमें मरना चाहता है, स्तुति करनेसे अति प्रसन्न होता है । ये तीनों कुलेश्याके लक्षण कहे गये हैं, इनको छोडकर पवित्र भावोंसे देहसे जुदे जीवको जानकर अपने स्वरूपका ध्यान कर । यही कल्याणका करण है ॥१५२॥
आगे फिर भी देहको दुखका कारण दिखलाते है-[दुःखस्य कारणं] नरकादि दुःखका कारण [इमं देहमपि] इस देहको [मनसि] मनमें [मत्वा] जानकर ज्ञानीजीव [त्यजंति] इसका
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