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________________ - दोहा १५१ ] परमात्मप्रकाशः २६५ वइरु मुणेवि वैरं मत्वेति । तथाहि । त्रिभुवनस्थदुःखैर्निर्मितत्वात् दुःखरूपोऽयं देहः, परमात्मा तु व्यवहारेण देहस्थोऽपि निश्चयेन देहाद्भिन्नत्वादनाकुलत्वलक्षणसुखस्वभावः । त्रिभुवनस्थपापैर्निर्मितत्वात् पापरूपोऽयं देहः, शुद्धात्मा तु व्यवहारेण देहस्थोऽपि निश्चयेन पापरूपदेहाद्भिन्नत्वादत्यन्तपवित्रः । त्रिभुवनस्थाशुचिद्रव्यैर्निर्मितत्वादशुचिरूपोऽयं देहः, शुद्धात्मा तु व्यवहारेण देहस्थोऽपि निश्चयेन देहात्पृथग्भूतत्वादत्यन्तनिर्मल इति । अत्रैवं देहेन सह शुद्धात्मनो भेदं ज्ञाखा निरन्तरं भावना कर्तव्येति तात्पर्यम् ।। १५० ।। अथ जोइय देहु घिणावणउ लज्जहि किं ण रमंतु । णाणि धम्में रह करहि अप्पा विमलु करंतु ॥ १५१ ॥ योगिन् देहः घृणास्पदः लज्जसे किं न रममाणः । ज्ञानिन् धर्मेण रतिं कुरु आत्मानं विमलं कुर्वन् ॥ १५१ ॥ जोय इत्यादि । जोइय हे योगिन् देहु घिणावणउ देहो घृणया दुगुञ्छया सहितः । लज्जहि किं ण रमंतु दुगुच्छारहितं परमात्मानं मुक्त्वा देहं रममाणो लज्जां किं न करोषि । किं करोमीति प्रश्ने प्रत्युत्तरं ददाति । णाणिय हे विशिष्टभेदज्ञानिन् धम्मि निश्चयधर्मशब्दवाच्येन वीतरागचारित्रेण कृत्वा रइ करहि रतिं प्रीतिं कुरु । किं कुर्वन् सन् । अप्पा वीतरागसदानन्दैकस्वभावपरमात्मानं विमलु करंतु आर्तरौद्रादिसमस्तविकल्पत्यागेन विमलं निर्मलं कुर्वन्निति तात्पर्यम् ॥ १५१ ॥ निराकुलस्वरूप सुखरूप है, तीन लोकमें जितने पाप है, उन पापोंसे यह शरीर बनाया गया है, इसलिये यह देह पापरूप ही है, इससे पाप ही उत्पन्न होता है, और चिदानन्द चिद्रूप जीव पदार्थ व्यवहारनयसे देहमें स्थित है, तो भी देहसे भिन्न अत्यंत पवित्र है, तीन जगतमें जितने अशुचि पदार्थ हैं, उनको इकट्ठे कर यह शरीर निर्माण किया है, इसलिये महा अशुचिरूप है, और आत्मा व्यवहारनयकर देहमें विराजमान है, तो भी देहसे जुदा परम पवित्र है । इस प्रकार देहका और जीवका अत्यंत भेद जानकर निरन्तर आत्माकी भावना करनी चाहिये ॥ १५० ॥ आगे फिर भी देहको अपवित्र दिखलाते हैं - [ योगिन् ] हे योगी, [ देहः ] यह शरीर [ घृणास्पदः ] घिनावना है, [ रममाणः ] इस देहसे रमता हुआ तू [ किं न लज्जसे ] क्यों नहीं शरमाता ? [ ज्ञानिन् ] हे ज्ञानी, तू [ आत्मानं ] आत्माको [ विमलं कुर्वन् ] निर्मल करता हुआ [ धर्मेण ] धर्मसे [ रतिं ] प्रीति [ कुरु] कर ॥ भावार्थ - हे जीव, तू सब विकल्प छोडकर वीतरागचारित्ररूप निश्चयधर्ममें प्रीति कर । आर्त रौद्र आदि समस्त विकल्पोंको छोडकर आत्माको निर्मल करता हुआ वीतराग भावोंसे प्रीति कर ।। १५१॥ आगे देहके स्नेहसे छुडाते हैं - [ योगिन् ] हे योगी, [देहं ] इस शरीर से [ परित्यज ] प्रीति छोड, क्योंकि [ देहः ] यह देह [ भद्रः न भवति ] अच्छा नहीं है, इसलिये [ देहविभिन्नं ] देहसे भिन्न For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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