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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १५०जेहउ जज्जर णरय-घरु तेहउ जोइय काउ । णरइ णिरंतरु पूरियउ किम किज्जइ अणुराउ ॥ १४९ ॥ यथा जर्जर नरकगृहं तथा योगिन् कायः ।
नरके निरन्तरं पूरितं किं क्रियते अनुरागः ॥ १४९ ॥ जेहउ इत्यादि । जेहउ जजरु यथा जर्जरं शतजीर्णं णरयघरु नरकगृहं तेहउ जोइड काउ तथा हे योगिन् कायः। यतः किम् । णरइ णिरंतर पूरियउ नरके निरन्तरं पूरितम् । एवं ज्ञाखा किम किज्जइ अणुराउ कथं क्रियते अनुरागो न कथमपीति । तद्यथा-यथा नरकगृहं शतजीर्ण तथा कायगृहमपि नवद्वारछिद्रितत्वात् शतजीर्ण, परमात्मा तु जन्मजरामरणादिच्छिद्रदोषरहितः । कायस्तु ग्थमूत्रादिनरकपूरितः, भगवान् शुद्धात्मा तु भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्ममलरहित इति । अयमत्र भावार्थः । एवं देहात्मनोः भेदं ज्ञाखा देहममलं त्यक्त्वा वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थिखा च निरन्तरं भावना कर्तव्येति ॥ १४९॥ अथ
दुक्खइँ पावइँ असुचियइँ ति-हुयणि सयलहै लेवि । एयहि देह विणिम्मियउ विहिणा वइरु मुणेवि ॥ १५० ॥ दुःखानि पापानि अशुचीनि त्रिभुवने सकलानि लात्वा ।
एतैः देहः विनिर्मितः विधिना वैरं मत्वा ॥ १५० ॥ दुक्खई इत्यादि । दुक्खई दुःखानि पावई पापानि असुचियइं अशुचिद्रव्याणि तिहुयणि सयलई लेवि भुवनत्रयमध्ये समस्तानि गृहीखा एयहिं देहु विणिम्मियउ एतैर्देहो विनिर्मितः । केन कर्तृभूतेन । विहिणा विधिशब्दवाच्येन कर्मणा । कस्मादेवंभूतो देहः कृतः। [नरके] मल मूत्रादिसे [निरंतरं] हमेशा [पूरितं] भरा हुआ है । ऐसे शरीरसे [अनुरागः] प्रीति [किं क्रियते] कैसे की जावे ? किसी तरह भी यह प्रीतिके योग्य नहीं है । भावार्थ-जैसे नरकका घर अति जीर्ण जिसके सैकड़ों छिद्र हैं, वैसे यह कायरूपी घर साक्षात् नरकका मन्दिर है, नव द्वारोंसे अशुचि वस्तु झरती है । और आत्माराम जन्म-मरणादि छिद्र आदि दोष रहित है, भगवान शुद्धात्मा भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्ममलसे रहित है, यह शरीर मल मूत्रादि नरकसे भरा हुआ है । ऐसा शरीरका और जीवका भेद जानकर देहसे ममता छोडकर वीतराग निर्विकल्प समाधिमें ठहरकर निरन्तर भावना करनी चाहिये ॥१४९॥
आगे फिर भी देहकी मलिनता दिखलाते हैं-[त्रिभुवने] तीन लोकमें [दुःखानि पापानि अशुचीनि] जितने दुःख हैं, पाप हैं, और अशुचि वस्तुयें हैं, [सकलानि] उन सबको [लात्वा] लेकर [एतैः] इन मिले हुओंसे [विधिना] विधाताने [वैरं] वैर [मत्वा] मानकर [देहः] शरीर [निर्मितः] बनाया है ।। भावार्थ-तीन लोकमें जितने दुःख है, उनसे यह देह रचा गया है, इससे दुःखरूप है, और आत्मद्रव्य व्यवहारनयकर देहमें स्थित है, तो भी निश्चयनयकर देहसे भिन्न
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