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-दोहा १४८]
परमात्मप्रकाशः अथ देहस्याशुचिखानित्यवादिप्रतिपादनरूपेण व्याख्यानं करोति षट्कलेन तथाहि
उव्वलि चोप्पडि चिट्ठ करि देहि सु-मिट्ठाहार । देहहँ सयल णिरत्थ गय जिमु दुजणि उवयार ॥ १४८ ॥ उद्वर्तय म्रक्षय चेष्टां कुरु देहि सुमृष्टाहारान् ।
देहस्य सकलं निरर्थं गतं यथा दुर्जने उपकाराः ॥ १४८ ॥ उव्वलि इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । उव्वलि उद्वर्तनं कुरु चोप्पडि तलादिम्रक्षणं कुरु, चिट्ठ करि मण्डनरूपां चेष्टां कुरु, देहि सुमिट्टाहार देहि सुमृष्टाहारान् । कस्य । देहहं देहस्य । सयल णिरत्थ गय सकला अपि विशिष्टाहारादयो निरर्थका गताः। केन दृष्टान्तेन । जिमु दुजणि उवयार दुर्जने यथोपकारा इति । तद्यथा । यद्यप्ययं कायः खलस्तथापि किमपि ग्रासादिकं दत्त्वा अस्थिरेणापि स्थिरं मोक्षसौख्यं गृह्यते । सप्तधातुमयखेनाशुचिभूः तेनापि शुचिभूतं शुद्धात्मस्वरूपं गृह्यते निर्गुणेनापि केवलज्ञानादिगुणसमूहः साध्यत इति भावार्थः । तथा चोक्तम्-"अथिरेण थिरा मलिणेण णिम्मला णिग्गुणेण गुणसारं । कारण जा विढप्पइ सा किरिया किं ण कायव्वा ॥"॥ १४८ ॥
अथ
आगे देहको अशुचि अनित्य आदि दिखानेका छह दोहोंमें व्याख्यान करते हैं-[देहस्य] इस देहका [उद्वर्तय] उबटना करो, [म्रक्षय] तैलादिकका मर्दन करो, [चेष्टां कुरु] शृंगार आदिसे अनेक प्रकार सजाओ, [सुमृष्टाहारान्] अच्छे अच्छे मिष्ट आहार [देहि] देओ, लेकिन [सकलं] ये सब [निरर्थं गतं] यत्न व्यर्थ है, [यथा] जैसे [दुर्जने] दुर्जनोंका [उपकाराः] उपकार करना वृथा है । भावार्थ-जैसे दुर्जनपर अनेक उपकार करो वे सब वृथा जाते हैं, दुर्जनसे कुछ फायदा नहीं, उसी तरह शरीरके अनेक यत्न करो, इसको अनेक तरहसे पोषण करो परन्तु यह अपना नहीं हो सकता | इसलिए सार यहीं है कि इसको अधिक पुष्ट नहीं करना । कुछ थोडासा ग्रासादि देकर स्थिर करके मोक्ष साधन करना; सात धातुमयी यह अशुचि शरीर है, इससे पवित्र शुद्धात्मस्वरूपकी आराधना करना । इस महा निर्गुण शरीरसे केवलज्ञानादि गुणोंका समूह साधना चाहिये । यह शरीर भोगके लिये नहीं हैं । इससे योगका साधनकर अविनाशी पदकी सिद्धि करनी । ऐसा कहा भी है, कि इस क्षणभंगुर शरीरसे स्थिरपद मोक्षकी सिद्धि करनी चाहिए, यह शरीर मलिन है, इससे निर्मल वीतरागकी सिद्धि करना, और यह शरीर ज्ञानादि गुणोंसे रहित है, इसके निमित्तसे सारभूत ज्ञानादि गुण सिद्ध करने योग्य है । इस शरीरसे तप संयमादिका साधन होता है, और तप संयमादि क्रियासे सारभूत गुणोंकी सिद्धि होती है । जिस क्रियासे ऐसे गुण सिद्ध हों वह क्रिया क्यों नहीं करनी ? अर्थात् अवश्य करनी चाहिए ॥१४८।।
आगे शरीरको अशुचि दिखलाकर ममत्व छुडाते हैं-[योगिन्] हे योगी, [यथा] जैसा [जर्जरं] सैकडों छेदोंवाला [नरकगृहं] नरक घर है, [तथा] वैसा यह [कायः] शरीर
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