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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १४७अव्याबाधसुखादिलक्षणो मोक्ष इति तात्पर्यम् ॥ १४६ ॥ अथ भेदाभेदरवनयभावनारहितं मनुष्यजन्म निस्सारमिति निश्चिनोति
बलि किउ माणुस-जम्मडा देवखंतहँ पर सारु । जइ उभइ तो कुहइ अह डज्झइ तो छारु ॥ १४७ ।। बलिः क्रियते मनुष्यजन्म पश्यतां परं सारम् ।
यदि अवष्टभ्यते ततः कथति अथ दह्यते तर्हि क्षारः ॥ १४७॥ बलि किउ इत्यादि । बलि किउ बलिः क्रियते मस्तकस्योपरितनभागेनावतारणं क्रियते। किम् । माणुसजम्मडा मनुष्यजन्म । किविशिष्टम् । देवखंतहं पर सारु बहिर्भागे व्यवहारेण पश्यतामेव सारभूतम् । कस्मात् । जइ उट्ठभइ तो कुहइ यद्यवष्टभ्यते भूमौ निक्षिप्यते ततः कुत्सितरूपेण परिणमति । अह उज्मइ तो छारु अथवा दह्यते तर्हि भस्म भवति । तद्यथा । हस्तिशरीरे दन्ताश्चमरीशरीरे केशा इत्यादि सारखं तिर्यक्शरीरे दृश्यते, मनुष्यशरीरे किमपि सारत्वं नास्तीति ज्ञात्वा घुणभक्षितेक्षुदण्डवत्परलोकबीजं कृत्वा निस्सारमपि सारं क्रियते । कथमिति चेत् । यथा घुणभक्षितेक्षुदण्डे बीजे कृते सति विशिष्टेक्षणां लाभो भवति तथा निःसारशरीराधारेण वीतरागसहजानन्दैकस्वशुद्धात्मस्वभावसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपनिश्चयरत्नत्रयभावनाबलेन तत्साधकव्यवहाररत्नत्रयभावनाबलेन च स्वर्गापवर्गफलं गृह्यत इति तात्पर्यम् ॥ १४७ ॥
आगे भेदाभेदरत्नत्रयकी भावनासे रहित जीवका मनुष्य-जन्म निष्फल है, ऐसा कहते हैं[मनुष्यजन्म] इस मनुष्य-जन्मको [बलिः क्रियते] मस्तकके ऊपर वार डालो, जो कि [पश्यतां परं सारं] देखनेमें केवल सार दीखता हैं, [यदि अवष्टभ्यते] यदि इस मनुष्य देहको भूमिमें गाड दिया जावे, [ततः] तो [कथति] सडकर दुर्गन्धरूप परिणमे, [अथ] और यदि [दह्यते] जलाये [तर्हि ] तो [क्षारः] राख हो जाता है । भावार्थ-इस मनुष्य-देहको व्यवहारनयसे बाहरसे देखो तो सार मालूम होता है, यदि विचार करो तो कुछ भी सार नहीं है । तिर्यञ्चोंके शरीरमें तो कुछ सार भी दीखता है, जैसे हाथीके शरीरमें दांत सार है, सुरह गौके शरीरमें बाल सार हैं इत्यादि । परन्तु मनुष्य देहमें सार नहीं है, घुनके खाये हुये गन्नेकी तरह मनुष्य-देहको असार जानकर परलोकका बीज करके सार करना चाहिए । जैसे घुनोंका खाया हुआ ईख किसी कामका नहीं है, एक बीजके कामका है, सो उसको बोकर असारसे सार किया जाता है, उसी प्रकार मनुष्य देह किसी कामका नहीं,परंतु परलोकका बीजकर असारसे सार करना चाहिये । इस देहसे परलोक सुधारना ही श्रेष्ठ है । जैसे घुनके खाये गये ईखको बोनेसे अनेक ईखोंका लाभ होता है, वैसे ही इस असार शरीरके आधारसे वीतराग परमानन्द शुद्धात्मस्वभावका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप निश्चयरत्नत्रय उसकी भावनाके बलसे मोक्ष प्राप्त किया जाता है, और निश्चयरत्नत्रयका साधक जो व्यवहाररत्नत्रय उसकी भावनाके बलसे स्वर्ग मिलता है, तथा परम्परासे मोक्ष होता है । यह मनुष्य-शरीर परलोक सुधारनेके लिये होवे तभी सार है, नहीं तो सर्वथा असार है ।।१४७।।
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