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________________ परमात्मप्रकाशः २६७ -दोहा १५४] दुःखस्य कारणं मत्वा मनसि देहमपि एनं त्यजन्ति । यत्र न प्राप्नुवन्ति परमसुखं तत्र किं सन्तः वसन्ति ॥ १५३ ॥ दुक्खहं इत्यादि । दुक्खहं कारणु वीतरागतात्त्विकानन्दरूपात् शुद्धात्मसुखाद्विलक्षणस्य नारकादिदुःखस्य कारणं मुणिवि मला । क । मणि मनसि । कम् । देह वि देहमपि एह इमं प्रत्यक्षीभूतं चयंति देहममत्वं शुद्धात्मनि स्थित्वा त्यजन्ति जित्थु ण पावहिं यत्र देहे न माप्नुवन्ति । किम् । परमसुह पञ्चेन्द्रियविषयातीतं शुद्धात्मानुभूतिसंपन्नं परमसुखं तित्थु कि संत वसंति तत्र देहे सन्तः सत्पुरुषाः किं वसन्ति शुद्धात्मसुखसंतोष मुक्त्वा तत्र किं रतिं कुर्वन्ति इति भावार्थः॥ १५३॥ अथात्मायत्तसुखे रति कुर्विति दर्शयति अप्पायत्तउ जं जि सुहु तेण जि करि संतोसु । पर सुहु वढ चिंतंताहँ हियइ ण फिटइ सोसु ॥ १५४ ॥ आत्मायत्तं यदेव सुखं तेनैव कुरु संतोषम् । परं सुखं वत्स चिन्तयतां हृदये न नश्यति शोषः ॥ १५४ ॥ अप्पायत्तउ इत्यादि । अप्पायत्तउ अन्यद्रव्यनिरपेक्षत्वेनात्माधीनं जं जि सुहु यदेव शुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नं सुखं तेण जि करि संतोसु तेनैव तदनुभवेनैव संतोषं कुरु पर सुहु वढ चिंतताहं इन्द्रियाधीनं परसुखं चिन्तयतां वत्स मित्र हियइ ण फिटइ सोसु हृदये न ममत्व छोड देते हैं, क्योंकि [यत्र] जिस देहमें [परमसुखं] उत्तम सुख [न प्राप्नुवंति] नहीं पाते, [तत्र] उसमें [संतः] सत्पुरुष [किं वसंति] कैसे रह सकते हैं ? भावार्थ-वीतराग परमानन्दरूप जो आत्मसुख उससे विपरीत नरकादिके दुःख, उनका कारण यह शरीर, उसको बुरा समझकर ज्ञानी जीव देहकी ममता छोड देते हैं, और शुद्धात्मस्वरूपका सेवन करते हैं, निजस्वरूपमें ठहरकर देहादि पदार्थोंमें प्रीति छोड देते हैं । इस देहमें कभी सुख नहीं पाते, सदा आधि-व्याधिसे पीडित ही रहते हैं । पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे रहित जो शुद्धात्मानुभूतिरूप परमसुख वह देहके ममत्व करनेसे कभी नहीं मिल सकता । महा दुःखके कारण इस शरीरमें सत्पुरुष कभी नहीं रह सकते । देहसे उदास होकर संसारकी आशा छोड सुखका निवास जो सिद्धपद उसको प्राप्त होते हैं । और जो आत्मभावनाको छोडकर संतोषसे रहित होकर देहादिकमें राग करते हैं, वे अनन्त भव धारण करते हैं, संसारमें भटकते फिरते हैं ॥१५३।। __ आगे यह उपदेश करते हैं, कि तू आत्मसुखमें प्रीति कर-[वत्स] हे शिष्य, [यदेव] जो [आत्मायत्तं सुखं] परद्रव्यसे रहित आत्माधीन सुख है, [तेनैव] उसीमें [संतोषं] संतोष [कुरु] कर, [परं सुखं] इन्द्रियाधीन सुखको [चिंतयतां] चिन्तवन करनेवालोके [हृदये] चित्तका [शोषः] दाह [न नश्यति] नहीं मिटता ॥ भावार्थ-आत्माधीन सुख आत्माके जाननेसे उत्पन्न होता है, इसलिये तू आत्माके अनुभवसे सन्तोष कर, भोगोंकी वाँछा करनेसे चित्त शान्त नहीं होता । जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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