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________________ २५४ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १३८चरणरूपं निश्चयरत्नत्रयम् । किं कृता । होयवि भूखा । कथंभूतम् । वाहिरउ बायः। केभ्यः । पंचहं पञ्चपरमेष्ठिभावनाप्रतिपक्षभूतेभ्यः पञ्चमगतिसुखविनाशकेभ्यः पञ्चेन्द्रियेभ्यः। किंकुर्वाणः। झायंतउ ध्यायन् सन् । कम् । परमत्थु परमार्थशब्दवाच्यं विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं परमात्मानमिति तात्पर्यम् । योगशब्दस्यार्थः कथ्यते–'युज् ' समाधौ इति धातुनिष्पमेन योगशन्देन वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरुच्यते । अथवानन्तज्ञानादिरूपे स्वशुद्धात्मनि योजनं परिणमनं योगः, स इत्यंभूतो योगो यस्यास्तीति स तु योगी ध्यानी तपोधन इत्यर्थः ॥ १३७*५ ॥ अथ पञ्चेन्द्रियसुखस्यानित्यवं दर्शयति विसय-सुह: बे दिवहडा पुणु दुक्खहँ परिवाडि । भुल्लउ जीव म वाहि तुहुँ अप्पण खंधि कुहाडि ॥ १३८ ॥ विषयसुखानि द्वे दिवसके पुनः दुःखानां परिपाटी । भ्रान्त जीव मा वाहय त्वं आत्मनः स्कन्धे कुठारम् ॥ १३८ ॥ विसय इत्यादि । विसयसुहइं निर्विषयानित्याद्वीतरागपरमानन्दैकस्वभावात् परमात्ममुखात्मतिकूलानि विषयमुखानि बे दिवहडा दिनद्वयस्थायीनि भवन्ति । पुणु पुनः पश्चादिन द्वयानन्तरं दुक्खहं परिवाडि आत्मसुखबहिमुखेन विषयासक्तेन जीवेन यान्युपार्जितानि पापानि तदुदयजनितानां नारकादिदुःखानां पारिपाटी प्रस्तावः एवं ज्ञासा भुल्लउ जीव हे भ्रांत जीव म वाहि तुहुं मा निक्षिप खम् । कम् । कुहाडि कुठारम् । क । अप्पण खंषि आत्मीयस्कन्धे । अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञाता विषयमुखं त्यक्त्वा वीतरागपरमात्मसुखे च स्थिखा निरन्तरं भावना कर्तव्येति भावार्थः॥१३८॥ ज्ञान आचरणरूप निश्चयरत्नत्रयमें ही लीन है, जो पंचमगतिरूपी मोक्षके सुखको विनाश करनेवाली और पंचपरमेष्ठीकी भावनासे रहित ऐसी पंचेंद्रियोंसे जुदा हो गया है, वही योगी है । योग शब्दका अर्थ ऐसा है, कि अपना मन चेतनमें लगाना । वह योग जिसके हो, वही योगी है, वही ध्यानी है, वही तपोधन है, यह निःसंदेह जानना ॥१३७*५॥ आगे पंचेंद्रियोंके सुखको विनाशीक बतलाते हैं-विषयसुखानि] विषयोंके सुख [ढे दिवसे] दो दिनके हैं, [पुनः] फिर बादमें [दुःखानां परिपाटी] ये विषय दुःखकी परिपाटी हैं, ऐसा जानकर [भ्रांत जीव] हे भोले जीव, [त्वं] तू [आत्मनः स्कंधे] अपने कंधेपर [कुठारं] आप ही कुल्हाडीको [मा वाहय] मत चला । भावार्थ-ये विषय क्षणभंगुर हैं, बारबार दुर्गतिके दुःखके देनेवाले हैं, इसलिये विषयोंका सेवन अपने कंधेपर कुल्हाडीका मारना है, अर्थात् नरकमें अपनेको डुबोना है, ऐसा व्याख्यान जानकर विषय सुखोंको छोड, वीतराग परमात्मसुखमें ठहरकर निरन्तर शुद्धोपयोगकी भावना करनी चाहिये ॥१३८॥ आगे आत्मभावनाके लिये जो विद्यमान विषयोंको छोडता है, उसकी प्रशंसा करते हैं-यः] जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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