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________________ परमात्मप्रकाशः दोहा १३७*५ ] विसयवणु पञ्चेन्द्रियविषयवनमित्यभिप्रायः ।। १३६ ॥ अथ ध्यानवैषम्यं कथयति जोइय विसमी जोय गइ मणु संठवण ण जाइ । इंदिय-विसय जि सुक्खडा तित्थु जि वलि वलि जाइ ॥ १३७ ॥ योगिन् विषमा योगगतिः मनः संस्थापयितुं न याति । इन्द्रियविषयेषु एव सुखानि तत्र एव पुनः पुनः याति ॥ १३७ ॥ जो इत्यादि । जोइय हे योगिन् विसमी जोयगह विषमा योगगतिः । कस्मात् । मणु संठवण ण जाइ निजशुद्धात्मन्यतिचपलं मर्कटमायं मनो धर्तुं न याति । तदपि कस्मात् । इंदियविसय जि सुक्खडा इन्द्रियविषयेषु यानि सुखानि वलि वलि तित्थु जि जाइ वीतरागपरमाह्लादसमरसीभावपरमसुखरहितानां अनादिवासनावासितपञ्चेन्द्रियविषयसुखास्वादासक्तानां जीवानां पुनः पुनः तत्रैव गच्छतीति भावार्थः ।। १३७ ॥ अथ स्थलसंख्याबाह्यं प्रक्षेपकं कथयति- २५३ सो जोइउ जो जोगवइ दंसणु णाणु चरिन्तु । होयवि पंचहँ बाहिर झायंत परमत्थु ॥ १३७*५ ।। स योगी यः पालयति (?) दर्शनं ज्ञानं चारित्रम् । भूत्वा पञ्चभ्यः बाह्यः ध्यायन् परमार्थम् ॥ १३७*५॥ सो इत्यादि । सो जोइउ स योगी ध्यानी भण्यते । यः किं करोति । जो जोगवइ यः कर्ता प्रतिपालयति रक्षति । किम् । दंसणु णाणु चरितु निजशुद्धात्मद्रव्य सम्यक् श्रद्धानज्ञानानु Jain Education International आगे ध्यानकी कठिनता दिखलाते हैं - [ योगिन् ] हे योगी, [ योगगतिः ] ध्यानकी गति [विषमा] महाविषम है, क्योंकि [मनः ] चित्तरूपी बन्दर चपल होनेसे [ संस्थापयितुं न याति ] निज शुद्धात्मामें स्थिरताको नहीं प्राप्त होता । क्योंकि [ इंद्रियविषयेषु एव] इन्द्रियके विषयोंमें ही [सुखानि ] सुख मान रहा है, इसलिये [ तत्र एव ] उन्हीं विषयोंमें [ पुनः पुनः ] फिर फिर अर्थात् बार बार [याति] जाता है ।। भावार्थ- वीतराग परम आनन्द समरसी भावरूप अतींद्रिय सुखसे रहित जो यह संसारी जीव है, उसका मन अनादिकालकी अविद्याकी वासनामें बस रहा है, इसलिये पंचेन्द्रियोंके विषय - सुखोंमें आसक्त है, इन जगतके जीवोंका मन बारबार विषय - सुखों में जाता है, और निजस्वरूपमें नहीं लगता है, इसलिये ध्यानकी गति विषम ( कठिन ) है ॥१३७॥ आगे स्थल-संख्याके बाह्य जो प्रक्षेपक दोहे हैं, उनको कहते हैं - [ स योगी ] वही ध्यानी है, [यः] जो [पंचभ्यः बाह्यः] पचेंद्रियोंसे बाहर ( अलग ) [ भूत्वा ] होकर [ परमार्थं ] निज परमात्माका [ ध्यायन्] ध्यान करता हुआ [ दर्शनं ज्ञानं चारित्रं ] दर्शन ज्ञान चारित्ररूपी रत्नत्रयको [ पालयति ] पालता है, रक्षा करता है ॥ भावार्थ - जिसके परिणाम निज शुद्धात्मद्रव्यके सम्यक् श्रद्धान For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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