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________________ २५२ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १३६चिदानन्दैकमुखामृततप्तं निर्मलं चित्तं कृता । अप्पा वंचिउ तेण आत्मा वश्चितः तेन नियमेन। किं कृता । लहेवि लब्ध्वा । किम् । माणुसजम्मु मनुष्यजन्मेति । तथाहि । दुर्लभपरंपरारूपेण मनुष्यभवे लब्धे तपश्चरणेऽपि च निर्विकल्पसमाधिबलेन रागादिपरिहारेण चित्तशुद्धिः कर्तव्येति। येन चित्तशुद्धिर्न कृता स आत्मवञ्चक इति भावार्थः । तथा चोक्तम्-“चित्ते बद्धे बद्धो मुक्के मुक्को ति णत्यि संदेहो । अप्पा विमलसहावो मइलिज्जइ मइलिए चित्ते ॥" ॥ १३५ ॥ अत्र पञ्चेन्द्रियविजयं दर्शयति ए पंचिंदिय-करहडा जिय मोकला म चारि । चरिवि असेसु वि विसय-वणु पुणु पाडहिं संसारि ॥ १३६ ।। एते पञ्चेन्द्रियकरभकाः जीव मुक्तान् मा चारय । चरित्वा अशेष अपि विषयवनं पुनः पातयन्ति संसारे ॥ १३६ ॥ ए इत्यादि । ए एते प्रत्यक्षीभूताः पंचिंदियकरहडा अतीन्द्रियमुखास्वादरूपात्परमात्मनः सकाशात् प्रतिपक्षभूताः पञ्चेन्द्रियकरहटा उष्ट्राः जिय हे मूढजीव मोकला म चारि खशुद्धात्मभावनोत्थवीतरागपरमानन्दैकरूपसुखपराङ्मुखो भूखा स्वेच्छया मा चारय व्याघुट्टय। यतः किं कुर्वन्ति । पाडहिं पातयन्ति । कम् । जीवम् । क । संसारे निःसंसारसुद्धात्मप्रतिपक्षभूते पञ्चपकारसंसारे पुणु पश्चात् । किं कृला पूर्वम् । चरिवि चरिखा भक्षणं कृता । किम् । होना दुर्लभ है । मनुष्यमें भी आर्यक्षेत्र, उत्तमकुल, दीर्घ आयु, सत्संग, धर्मश्रवण, धर्मका धारण और उसे जन्मपर्यंत निबाहना ये सब बातें दुर्लभ है, सबसे दुर्लभ (कठिन) आत्मज्ञान है, जिससे कि चित्त शुद्ध होता है । ऐसी महादुर्लभ मनुष्यदेह पाकर तपश्चरण अंगीकार करके निर्विकल्प समाधिके बलसे रागादिको त्यागकर परिणाम निर्मल करने चाहिये; जिन्होंने चित्तको निर्मल नहीं किया, वे आत्माको ठगनेवाले हैं । ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि चित्तके बंधनेसे यह जीव कर्मोंसे बँधता है । जिनका चित्त परिग्रहसे, धन धान्यादिकसे आसक्त हुआ, वे ही कर्मबंधनसे बंधते है, और जिनका चित्त परिग्रहसे छूटा, आशा (तृष्णा) से अलग हुआ, वे ही मुक्त हुए । इसमें संदेह नहीं है । यह आत्मा निर्मल स्वभाव है, सो चित्तके मैले होनेसे मैला होता है ॥१३५॥ __ आगे पाँच इंद्रियोंका जीतना दिखलाते हैं-एते] ये प्रत्यक्ष [पंचेन्द्रियकरभकाः] पाँच इंद्रियरूपी ऊँट हैं, उनको [स्वेच्छया] अपनी इच्छासे [मा चारय] मत चरने दे, क्योंकि [अशेषं] सम्पूर्ण [विषयवनं] विषय-वनको [चरित्वा] चरके [पुनः] फिर ये [संसारे] संसारमें ही [पातयंति] पटक देंगे । भावार्थ-ये पाँचों इंद्रिय अतींद्रियसुखके आस्वादनरूप परमात्मामें पराङ्मुख है, उनको हे मूढजीव, तू शुद्धात्माकी भावनासे पराङ्मुख होकर इनको स्वच्छंदी मत कर, अपने वशमें रख; ये तुझे संसारमें पटक देंगे, इसलिए इनको विषयोंसे पीछे लौटा । संसारसे रहित जो शुद्ध आत्मा उससे उलटा जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूप पाँच प्रकारका संसार उसमें ये पंचेन्द्रियरूपी ऊँट स्वच्छंदी हुए विषय-वनको चरके जगतके जीवोंको जगतमें ही पटक देंगे, यह तात्पर्य जानना ।१३६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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