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________________ - दोहा १३५ ] परमात्मप्रकाशः २५१ संसारसमुद्रे । तथाच । हे आत्मन्, अनादिकाले दुर्लभे वीतरागसर्वज्ञप्रणीते रागद्वेषमोहरहिते जीवपरिणामलक्षणे शुद्धोपयोगरूपे निश्चयधर्मे व्यवहारधर्मे च पुनः षडावश्यकादिलक्षणे गृहस्थापेक्षया दानपूजादिलक्षणे वा शुभोपयोगस्वरूपे रतिं कुरु । इत्थंभूते धर्मे प्रतिकूलो यः तं मनुष्यं स्वगोत्रजमपि त्यज तदनुकूलं परगोत्रजमपि स्वीकुर्विति । अत्रायं भावार्थः । विषयसुखनिमित्तं यथानुरागं करोति जीवस्तथा जिनधर्मं करोति तर्हि संसारे न पततीति । तथा चोक्तम्“ विसयहं कारणि सव्वु जणु जिम अणुराउ करेइ । तिम जिणभासिए धम्मि जइ ण उ संसारि 46 " पढेइ ।। ” ।। १३४ ।। अथ येन चित्तशुद्धिं कृला तपश्चरणं न कृतं तेनात्मा वञ्चित इत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति जेण ण चिण्ण तव यरणु णिम्मलु चिन्तु करेवि । अप्पा वंचि तेण पर माणुस - जम्मु लहेवि ॥। १३५ ।। येन न चीर्ण तपश्चरणं निर्मलं चित्तं कृत्वा । आत्मा वञ्चितः तेन परं मनुष्यजन्म लब्ध्वा ॥ १३५ ॥ जेण इत्यादि । जेण येन जीवेन ण चिण्णउ न चरितं न कृतम् । किम् । तवयरणु बाह्याभ्यन्तरतपश्चरणम् । किं कृत्वा । णिम्मलु चित्तु करेवि कामक्रोधादिरहितं वीतराग भी कुछ काम नहीं है, [ : ] जो [संसारे] संसारसमुद्रमें इस जीवको [ पातयति ] पटक देवे ॥ भावार्थहे आत्माराम, अनादिकालसे दुर्लभ जो वीतराग सर्वज्ञका कहा हुआ राग द्वेष मोहरहित शुद्धोपयोगरूप निश्चयधर्म और शुभोपयोगरूप व्यवहारधर्म, उनमें भी छह आवश्यकरूप यतिका धर्म, तथा दान पूजादि श्रावकका धर्म, यह शुभाचाररूप दो प्रकार धर्म उसमें प्रीति कर । इस धर्मसे विमुख जो अपने कुलका मनुष्य उसे छोड, और इस धर्मके सन्मुख जो परकुटुंबका भी मनुष्य हो उससे प्रीति कर । तात्पर्य यह है कि यह जीव जैसे विषय - सुखसे प्रीति करता है, वैसे यदि जिनधर्मसे करे तो संसारमें नहीं भटके। ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि जैसे विषयोंके कारणोंमें यह जीव बारबार प्रेम करता है, वैसे यदि जिनधर्ममें करे, तो संसारमें भ्रमण न करे ॥ १३४ ॥ यह आगे जिसने चित्तकी शुद्धता करके तपश्चरण नहीं किया, उसने अपना आत्मा ठग लिया, अभिप्राय मनमें रखकर व्याख्यान करते हैं - [ येन ] जिस जीवने [ तपश्चरणं] बाह्याभ्यन्तर तप [न चीर्णं ] नहीं किया, [ निर्मलं चित्तं] महा निर्मल चित्त [ कृत्वा ] करके [तेन] उसने [ मनुष्यजन्म] मनुष्यजन्मको [ लब्ध्वा ] पाकर [ परं ] केवल [ आत्मा वंचितः ] अपना आत्मा ठग लिया ॥ भावार्थ - महान दुर्लभ इस मनुष्यदेहको पाकर जिसने विषयकषाय सेवन किये और क्रोधादि रहित वीतराग चिदानंद सुखरूपी अमृतकर प्राप्त अपना निर्मल चित्त करके अनशनादि तप न किया, वह आत्मघाती है, अपने आत्माको ठगनेवाला है । एकेंद्रिय पर्यायसे विकलत्रय होना दुर्लभ है, विकलत्रयसे असेनी पंचेंद्रिय होना, असेनी पंचेंद्रियसे सेनी होना, सेनी तिर्यंचसे मनुष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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