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दोहा १३९ ]
अथात्मभावनार्थं योऽसौ विद्यमानविषयान् त्यजति तस्य प्रशंसां करोति
संता विसय जु परिहरइ बलि किज्जउँ हउँ तासु ।
सो दइवेण जि मुंडियउ सीसु खडिल्लउ जासु ॥ १३९ ॥ सतः विषयान् यः परिहरति बलिं करोमि अहं तस्य ।
परमात्मप्रकाशः
सदैवेन एव मुण्डितः शीर्षं खल्वाटं यस्य ॥ १३९॥
संता इत्यादि । संता विसय कटुकविषप्रख्यान् किंपाकफलोपमानलब्धपूर्वनिरुपरागशुद्धात्मतत्त्वोपलम्भरूपनिश्चयधर्मचौरान् विद्यमानविषयान् जो परिहरइ यः परिहरति बलि किन हवं तासु बलि पूजां करोमि तस्याहमिति । श्रीयोगीन्द्रदेवाः स्वकीयगुणानुरागं प्रकटयन्ति । विद्यमानविषयत्यागे दृष्टान्तमाह । सो दइवेण जि मुंडियउ स दैवेन मुण्डितः । सकः । सीसु खडिल्लउ जासु शिरः खल्वाटं यस्येति । अत्र पूर्वकाले देवागमनं दृष्ट्वा सप्तर्द्धिरूपं धर्मातिशयं दृष्ट्वा अवधिमनः पर्ययकेवलज्ञानोत्पत्तिं दृष्ट्वा भरतसगररामपाण्डवादिकमनेकराजाधिराजमणिमुकुटकिरणकलापचुम्बितपादारविन्दजिनधर्मरतं दृष्ट्वा च परमात्मभावनार्थं
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कोई ज्ञानी [सतः विषयान् ] विद्यमान विषयोंको [ परिहरति ] छोड देता है, [तस्य ] उसकी [अहं ] मैं [बलिं ] पूजा [ करोमि ] करता हूँ, क्योंकि [ यस्य शीर्षं ] जिसका शिर [ खल्वाटं ] गंजा है, [सः] वह तो [ दैवेन एव ] दैवकर ही [ मुंडित: ] मूँडा हुआ है, वह मुंडित नहीं कहा जा सकता । भावार्थ - जो देखनेमें मनोज्ञ ऐसा इन्द्रायनिका विष फल उसके समान ये मौजूद विषय हैं, ये वीतराग शुद्धात्मतत्वकी प्राप्तिरूप निश्चयधर्मस्वरूप रत्नके चोर हैं, उनको जो ज्ञानी छोडते हैं उनकी बलिहारी श्रीयोगीन्द्रदेव करते हैं, अर्थात् अपना गुणानुराग प्रगट करते हैं । जो वर्तमान विषयोंके प्राप्त होने पर भी उनको छोड़ते हैं, वे महापुरुषोंकर प्रशंसा योग्य हैं, अर्थात् जिनके सम्पदा मौजूद हैं, वे सब त्यागकर वीतरागके मार्गको आराधें, वे तो सत्पुरुषोंसे सदा ही प्रशंसा योग्य हैं, और जिसके कुछ भी तो सामग्री नहीं है, परंतु तृष्णासे दुःखी हो रहा है; अर्थात् जिसके विषय तो विद्यमान नहीं है तो भी उनका अभिलाषी है, वह महानिंद्य है । चतुर्थकालमें तो इस क्षेत्रमें देवोंका आगमन था, उनको देखकर धर्मकी रुचि होती थी, और नानाप्रकारकी ऋद्धियोंके धारी महामुनियोंका अतिशय देखकर ज्ञानकी प्राप्ति होती थी, तथा अन्य जीवोंको अवधि मन:पर्यय केवलज्ञानकी उत्पत्ति देखकर सम्यक्त्वकी सिद्धि होती थी । जिनके चरणारविन्दोंको बडे बडे मुकुटधारी राजा नमस्कार करते थे, ऐसे बडे-बडे राजाओंकर सेवनीक भरत सगर राम पांडवादि अनेक चक्रवर्ती बलभद्र नारायण तथा मंडलीक राजाओंको जिनधर्ममें लीन देखकर भव्यजीवोंको जिनधर्मकी रुचि उपजती थी, तब परमात्म-भावनाके लिए विद्यमान विषयोंका त्याग करते थे । और जब तक गृहस्थपनेमें रहते थे, तब तक दान-पूजादि शुभ क्रियायें करते थे, चार प्रकारके संघकी सेवा करते थे । इसलिये पहले समयमें तो ज्ञानोत्पत्तिके अनेक कारण थे, ज्ञान उत्पन्न होनेका अचंभा नहीं था । लेकिन अब इस पंचमकालमें इतनी सामग्री नहीं हैं। ऐसा कहा भी है,
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