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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १३०भवान्तरं प्रति गच्छतापि कुडिशब्दवाच्यो देहः सहैव न गत इति हे जीव इहु पडिछंदा जोइ इमं दृष्टान्तं पश्येति । अत्रेदमध्रुवं शाखा देहममखप्रभृतिविभावरहितनिजशुद्धात्मपदार्थभावना कर्तव्या इत्यभिप्रायः ॥ १२९॥ अथ तपोधनं प्रत्यधुवानुमेक्षा प्रतिपादयति
देउलु देउ वि सत्थु गुरु तित्यु वि वेड वि कव्धु । वच्छ जु दीसह कुसुमियउ इंधणु होसइ सव्वु ॥ १३० ।। देवकुलं देवोऽपि शालं गुरुः तीर्थमपि वेदोऽपि काव्यम् ।
वृक्षः यद् दृश्यते कुसुमितं इन्धनं भविष्यति सर्वम् ॥ १३० ॥ देउलु इत्यादि पदरखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । देउलु निर्दोषिपरमात्मस्थापनापतिमाया रक्षणार्थ देवकुलं मिथ्याखदेवकुलं वा, देउ वि तस्यैव परमात्मनोऽनन्तज्ञानादिगुणस्मरणार्थं धर्मप्रभावनार्थ वा प्रतिमास्थापनारूपो देवो रागादिपरिणतदेवतामतिमारूपो वा, सत्यु वीतरागनिर्विकल्पात्मतत्त्वमभृतिपदार्थप्रतिपादकं शावं मिथ्याशास्त्रं वा, गुरु लोकालोकप्रकाशककेवलज्ञानादिगुणसमृद्धस्य परमात्मनः प्रच्छादको मिथ्यावरागादिपरिणतिरूपो महाऽज्ञानान्धकासब क्षणभंगुर है । शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे रहित जो मिथ्यात्व विषयकषाय हैं उनसे आसक्त होकर जीवने जो कर्म उपार्जन किये हैं, उन कर्मोंसे जब यह जीव परभवमें गमन करता है, तब शरीर भी साथ नहीं जाता । इसलिये इस लोकमें इन देहादिक सबको विनश्वर जानकर देहादिकी ममता छोडना चाहिए और सकल विभावरहित निज शुद्धात्म पदार्थकी भावना करनी चाहिये ।१२९।
आगे मुनिराजोंको देवल आदि सभी सामग्री अनित्य दिखलाते हुये अध्रुवानुप्रेक्षाको कहते हैं[देवकुलं] अरहंतदेवकी प्रतिमाका स्थान जिनालय [देवोऽपि] श्रीजिनेंद्रदेव [शास्त्रं] जैनशास्त्र [गुरुः] दीक्षा देनेवाले गुरु [तीर्थमपि] संसार-सागरसे तैरनेके कारण परमतपस्वियोंके स्थान सम्मेदशिखर आदि [वेदोऽपि] द्वादशांगरूप सिद्धांत [काव्यं] गद्य पद्यरूप रचना इत्यादि [यद् वस्तु कुसुमितं] जो वस्तु अच्छी या बुरी देखनेमें आती है, वे [सर्व] सब [इंधनं] कालरूपी अग्निका इंधन [भविष्यति] हो जायेगी ॥ भावार्थ-निर्दोष परमात्मा श्रीअरहंतदेव उनकी प्रतिमाके पधरानेके लिये जो गृहस्थोंने देवालय (जैनमंदिर) बनाया है, वह विनाशीक है, अनंत ज्ञानादिगुणरूप श्रीजिनेन्द्रदेवकी प्रतिमा धर्मकी प्रभावनाके अर्थ भव्यजीवोंने देवालयमें स्थापन की है, उसे देव कहते हैं, वह भी विनश्वर है । यह तो जिनमन्दिर और जिनप्रतिमाका निरूपण किया, इसके सिवाय अन्य देवोंके मन्दिर और अन्यदेवकी प्रतिमायें सब ही विनश्वर है, वीतराग-निर्विकल्प जो आत्मतत्त्व उसको आदि ले जीव-अजीवादि सकल पदार्थ उनका निरूपण करनेवाला जो जैनशास्त्र वह भी यधपि अनादि प्रवृत्तिकी अपेक्षा नित्य है, तो भी वक्ता श्रोता पुस्तकादिककी अपेक्षा विनश्वर ही है, और जैन सिवाय जो सांख्य पातंजल आदि परशास्त्र है, वे भी सब विनाशीक हैं। जिनदीक्षाके देनेवाले लोकालोकके प्रकाशक केवलज्ञानादि गुणोंकर पूर्ण परमात्माके रोकनेवाला जो
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