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परमात्मप्रकाशः
-दोहा १३०]
२४७ रदर्पः तद्व्यापियद्वचनदिनकरकिरणविदारितः सन् क्षणमात्रेण च विलयं गतः स च जिनदीक्षादायकः श्रीगुरुः तद्विपरीतो मिथ्यागुरुर्वा, तित्थु वि संसारतरणोपायभूतनिजशुद्धात्मतत्त्वभावनारूपनिश्चयतीर्थं तत्स्वरूपरतः परमतपोधनानां आवासभूतं तीर्थकदम्बकमपि मिथ्यातीर्थसमूहो वा, वेउ वि निर्दोषिपरमात्मोपदिष्टवेदशब्दवाच्यः सिद्धान्तोऽपि परकल्पितवेदो वा, कव्वु शुद्धजीवपदार्थादीनां गद्यपद्याकारेण वर्णकं काव्यं लोकप्रसिद्धविचित्रकथाकाव्यं वा, बच्छु परमात्मभावनारहितेन जीवेन यदुपार्जितं वनस्पतिनामकर्म तदुदयजनितं वृक्षकदम्बकं जो दीसइ कुसुमियउ यद् दृश्यते कुमुमितं पुष्पितं इंधणु होसइ सव्वु तत्सर्वं कालाग्नेरिन्धनं भविष्यति विनाशं यास्यतीत्यर्थः । अत्र तथा तावत् पञ्चेन्द्रियविषये मोहो न कर्तव्यः, प्राथमिकानां यानि धर्मतीर्थवर्तनादिनिमित्तानि देवकुलदेवप्रतिमादीनि तत्रापि शुद्धात्मभावना कालेन कर्तव्येति संबन्धः ॥ १३० ॥ मिथ्यात्व रागादि परिणत महा अज्ञानरूप अंधकार उसके दूर करनेके लिये सूर्यके समान जिनके वचनरूपी किरणोंसे मोहांधकार दूर हो गया है, ऐसे महामुनि गुरु हैं, वे भी विनश्वर है, और उनके आचरणसे विपरीत जो अज्ञान तापस मिथ्यागुरु वे भी क्षणभंगुर हैं । संसारसमुद्रके तरनेका कारण जो निज शुद्धात्मतत्त्व उसकी भावनारूप जो निश्चय तीर्थ उसमें लीन परम तपोधनका निवासस्थान सम्मेदशिखर गिरनार आदिक तीर्थ वे भी विनश्वर है, और जिनतीर्थक सिवाय जो पर यतियोंका निवास वे परतीर्थ वे भी विनाशीक है । निर्दोष परमात्मा जो सर्वज्ञ वीतरागदेव उनकर उपदेश किया गया जो द्वादशांग सिद्धांत वह वेद है, वह यद्यपि सदा सनातन है, तो भी क्षेत्रकी अपेक्षा विनश्वर है, किसी समय किसी क्षेत्रमें पाया जाता है, किसी समय नहीं पाया जाता, भरतक्षेत्र ऐरावत क्षेत्रमें कभी प्रगट हो जाता है, कभी विलय हो जाता है, और महाविदेहक्षेत्रमें यद्यपि प्रवाहकर सदा शाश्वता है, तो भी वक्ता श्रोताव्याख्यानकी अपेक्षा विनश्वर है, वे ही वक्ता श्रोता हमेशा नहीं पाये जाते, इसलिए विनश्वर है, और पर मतियोंकर कहा गया जो हिंसारूप वेद वह भी विनश्वर है । शुद्ध जीवादि पदार्थोंका वर्णन करनेवाली संस्कृत प्राकृत छटारूप गद्य व छंदबंधरूप पद्य उस स्वरूप और जिसमें विचित्र कथायें हैं, ऐसे सुन्दर काव्य कहे जाते हैं, वे भी विनश्वर हैं । इत्यादि जो-जो वस्तु सुन्दर और खोटे कवियोंकर प्रकाशित खोटे काव्य कहे जाते हैं, वे भी विनश्वर हैं । इत्यादि जो-जो वस्तु सुन्दर और असुन्दर दीखती हैं, वे सब कालरूपी अग्निका इंधन हो जायेगी । तात्पर्य यह है कि सब भस्म हो जावेगी और परमात्माकी भावनासे रहित जो जीव उसने उपार्जन किया जो वनस्पतिनामकर्म उसके उदयसे वृक्ष हुआ, सो वृक्षोंके समूह जो फूले फले दीखते हैं वे सब इंधन हो जावेंगे । संसारका सब ठाठ क्षणभंगुर है, ऐसा जानकर पंचेंद्रियोंके विषयोंमें मोह नहीं करना । विषयका राग सर्वथा त्यागने योग्य है । प्रथम अवस्थामें यद्यपि धर्मतीर्थकी प्रवृत्तिका निमित्त जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, जिनधर्म तथा जैन धर्मी इनमें प्रेम करना योग्य है, तो भी शुद्धात्माकी भावनाके समय यह धर्मानुराग भी
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