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- दोहा १२९]
परमात्मप्रकाशः
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मूढा इत्यादि । मूढा सयलु वि कारिमउ हे मूढजीव शुद्धात्मानं विहायान्यत् पञ्चेन्द्रियविषयरूपं समस्तमपि कृत्रिमं विनश्वरं भुल्लर मं तुस कंडि भ्रान्तो भूखा तुषकण्डनं मा कुरु । एवं विनश्वरं ज्ञात्वा सिवपहि णिम्मलि शिवशब्दवाच्यविशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावो मुक्तात्मा तस्य प्राप्त्युपायः पन्था निजशुद्धात्मसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपः स च रागादिरहितत्वेन निर्मलः करहि रह इत्थंभूते मोक्षे मोक्षमार्गे च रतिं प्रीतिं कुरु धरु परियणु लहु छंडि पूर्वोक्तमोक्षमार्गप्रतिपक्षभूतं गृहं परिजनादिकं शीघ्रं त्यजेति तात्पर्यम् ।। १२८ ।।
अथ पुनरप्यध्रुवानुप्रेक्षां प्रतिपादयति
जोइ सयलु विकारिमउ णिक्कारिमउ ण कोइ । जीवि जंति कुडि ण गय इहु पडिछंदा जोइ ॥ १२९ ॥ योगिन् सकलमपि कृत्रिमं निःकृत्रिमं न किमपि ।
जीवन यातेन देहो न गतः इमं दृष्टान्तं पश्य ॥ १२९ ॥
जोय इत्यादि । जोइय हे योगिन् सयलु वि कारिमउ टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावादकृत्रिमाद्वीतरागनित्यानन्दैकस्वरूपात् परमात्मनः सकाशाद् यदन्यन्मनोवाक्कायव्यापाररूपं तत्समस्तमपि कृत्रिमं विनश्वरं णिक्कारिमउ ण कोइ अकृत्रिमं नित्यं पूर्वोक्तपरमात्मसदृशं संसारे किमपि नास्ति । अस्मिन्नर्थे दृष्टान्तमाह । जीविं जंतिं कुडि ण गय शुद्धात्मतत्त्वभावनारहितेन मिथ्यात्वविषयकषायासक्तेन यान्युपार्जितानि कर्माणि तत्कर्मसहितेन जीवेन
( भूल) से [ तुषं मा कंडय ] भूसेका खंडन मत कर । तू [निर्मले ] परमपवित्र [शिवपथे ] मोक्षमार्ग [ रतिं ] प्रीति [ कुरु] कर, [गृहं परिजनं ] और मोक्षमार्गका उद्यमी होकर घर परिवार आदिको [लघु] शीघ्र ही [ त्यज ] छोड || भावार्थ - हे मूढ, शुद्धात्मस्वरूपके सिवाय अन्य सब पंचेन्द्रिय विषयरूप पदार्थ नाशवान हैं, तू भ्रमसे भूला हुआ असार भूसेके कूटने की तरह कार्य न कर, इस सामग्रीको विनाशीक जानकर शीघ्र ही मोक्षमार्गके घातक घर परिवार आदिको छोडकर, मोक्षमार्गका उद्यमी होकर, ज्ञानदर्शनस्वभावको रखनेवाले शुद्धात्माकी प्राप्तिका उपाय जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप मोक्षका मार्ग उसमें प्रीति कर । जो मोक्षमार्ग रागादिकसे रहित होनेसे महा निर्मल है ॥ १२८॥
आगे फिर भी अनित्यानुप्रेक्षाका व्याख्यान करते हैं - [ योगिन् ] हे योगी, [ सकलमपि] सभी [ कृत्रिमं ] विनश्वर हैं, [ निःकृत्रिमं ] अकृत्रिम [ किमपि ] कोई भी वस्तु [न] नहीं है, [ जीवेन याता ] जीवके जानेपर उसके साथ [ देहो न गतः ] शरीर भी नहीं जाता, [ इमं दृष्टांतं] इस दृष्टांतको [पश्य ] प्रत्यक्ष देखो । भावार्थ - हे योगी, टंकोत्कीर्ण (अघटित घाट - बिना टाँकीका गढा) अमूर्तिक पुरुषाकार आत्मा केवल ज्ञायक स्वभाव अकृत्रिम वीतराग परमानंदस्वरूप, उससे जुदे जो मन वचन कायके व्यापार उनको आदि ले सभी कार्य पदार्थ विनश्वर हैं । इस संसार में देहादि समस्त सामग्री अविनाशी नहीं है, जैसा शुद्ध बुद्ध परमात्मा अकृत्रिम है, वैसा देहादिमें से कोई भी नहीं है,
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