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योगीन्दुदेवविरचितः
[अ० २, दोहा १२८समीपे दर्शितौ । जहिं रुच्चइ तहिं लग्गु हे जीव यत्र रोचते तत्र लग्नो भव त्वमिति । कश्चिदज्ञानी माह । प्राणा जीवादभिन्ना भिन्ना वा, यद्यभिन्नाः तर्हि जीववत्प्राणानां विनाशो नास्ति, अथ भिन्नस्तर्हि माणवधेऽपि जीवस्य वधो नास्त्यनेन प्रकारेण जीवहिंसैव नास्ति कथं जीववधे पापबन्धो भविष्यतीति । परिहारमाह । कथंचिद्भेदाभेदः । तथाहि —— स्वकीयमाणे हृते सति दुःखोत्पत्तिदर्शनाद्वचत्रहारेणाभेदः सैव दुःखोत्पत्तिस्तु हिंसा भण्यते ततश्च पापबन्धः । यदि पुनरेकान्तेन देहात्मनोर्भेद एव तर्हि परकीयदेहघाते दुःखं न स्यान्न च तथा । निश्चयेन पुनर्जीवे गतेऽपि देहो न गच्छतीति हेतोर्भेद एव । ननु तथापि व्यवहारेण हिंसा जाता पापबन्धोऽपि न च निश्चयेन इति । सत्यमुक्तं त्वया, व्यवहारेण पापं तथैव नारकादिदुःखमपि व्यवहारेणेति । तदिष्टं भवतां चेतर्हि हिंसां कुरुत यूयमिति ॥ १२७ ॥
अथ मोक्षमार्गे रतिं कुर्विति शिक्षां ददाति
मूढा सयलु वि कारिमउ भुल्लउ मं तुस कंडि ।
सिव- हि म्मिलिं करहि रह घरु परियणु लहु छंडि ॥ १२८ ॥
मूढ सकलमपि कृत्रिमं भ्रान्तः मा तुषं कण्डय ।
शिवपथे निर्मले कुरु रतिं गृहं परिजनं लघु त्यज ॥ १२८ ॥
जीवहिंसा है ही नहीं, तुम जीवहिंसामें पाप क्यों मानते हो ? इसका समाधान - ये इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छ्वास और प्राण जीवसे किसी नयकर अभिन्न हैं, भिन्न नहीं है, किसी नयसे भिन्न हैं । ये दोनों नय प्रामाणिक हैं । अब अभेद कहते हैं, सो सुनो । अपने प्राणोंके होनेपर जो व्यवहारनयकर दुःखकी उत्पत्ति वह हिंसा है, उसीसे पापका बंध होता है । और यदि इन प्राणोंको सर्वथा जुदे ही मानें, देह और आत्माका सर्वथा भेद ही जानें, तो जैसे परके शरीरका घात होनेपर दुःख नहीं होता है, वैसे अपने देहके घातमें भी दुःख न होना चाहिये, इसलिये व्यवहारनयकर जीवका और देहका एकत्व दीखता है, परन्तु निश्चयसे एकत्व नहीं है । यदि निश्चयसे एकपना होवे, तो देहके विनाश होनेसे जीवका विनाश हो जावे, सो जीव अविनाशी है । जीव इस हो छोडकर परभवको जाता है, तब देह नहीं जाती हैं । इसलिये जीव और देहमें भेद भी है । यद्यपि निश्चयनयकर भेद है, तो भी व्यवहारनयकर प्राणोंके चले जानेसे जीव दुःखी होता है, सो जीवको दुःखी करना यही हिंसा है, और हिंसासे पापका बंध होता है । निश्चयनयकर जीवका घात नहीं होता, यह तूने कहा, वह सत्य है, परंतु व्यवहारनयकर प्राणवियोगरूप हिंसा है ही, और व्यवहारनयकर ही पाप है, और पापका फल नरकादिकके दुःख है, वे भी व्यवहारनयकर ही हैं, यदि तुझे नरकके दुःख अच्छे लगते हैं तो हिंसा कर, और नरकका भय है, तो हिंसा मत कर । ऐसे व्याख्यानसे अज्ञानी जीवोंका संशय मेटा ॥१२७॥
आगे श्रीगुरु यह शिक्षा देते हैं, कि तू मोक्षमार्गमें प्रीति कर - [ मूढ] हे मूढ जीव, [ सकलमपि ] शुद्धात्माके सिवाय अन्य सब विषयादिक [ कृत्रिमं ] विनाशवाले हैं, तू [ भ्रांत: ]
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