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________________ -दोहा १२७ ] परमात्मप्रकाशः २४३ भवतु मा भवतु नियमो नास्ति । परघातार्थं तप्तायः पिण्डग्रहणेन स्वहस्तदाहवत् इति भावार्थ: । तथा चोक्तम् - " स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा कषायवान् । पूर्वं प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वा वधः ।। " ।। १२६ ।। अथ जीवबधेन नरकगतिस्तद्रक्षणे स्वर्गो भवतीति निश्चिनोतिजीव वहतहँ रय- गइ अभय-पदाणे सग्गु । बे पह जवला दरिसिया जहि रुबइ तहि लग्गु ॥ १२७ ॥ जीवं तां नरकगतिः अभयप्रदानेन स्वर्गः । द्वौ पन्थानौ समीपौ दर्शितौ यत्र रोचते तत्र लग ॥ १२७ ॥ जीव वहत इत्यादि । जीव वहं हं निश्चयेन मिथ्यात्वविषयकषायपरिणामरूपं वधं स्वकीयजीवस्य व्यवहारेणेन्द्रियबलायुःप्राणापानविनाशरूपमन्यजीवानां च वधं कुर्वतां णरयगइ नरकगतिर्भवति अभयपदार्णे निश्चयेन वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनपरिणामरूपमभयप्रदानं स्वकी जीवस्य व्यवहारेण प्राणरक्षारूपमभयप्रदानं परजीवानां च कुर्वतां सग्गु स्वस्याभयप्रदानेन मोक्षो भवत्यन्यजीवानामभयप्रदानेन स्वर्गश्वेति बे पह जवला दरिसिया एवं द्वौ पन्थानौ करता है, वह आत्मघाती है। ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि जो आत्मा कषायवाला है, निर्दयी है, वह पहले तो आप ही अपने से अपना घात करता है, इसलिये आत्मघाती है, पीछे परजीवका घात होवे, या न होवे । जीवकी आयु बाकी रही हो, तो यह नहीं मार सकता, परंतु इसने मारनेके भाव किये, इस कारण निस्संदेह हिंसक हो चुका और जब हिंसाके भाव हुए, तब यह कषायवान् हुआ । कषायवान् होना ही आत्मघात है || १२६॥ आगे जीवहिंसाका फल नरकगति है, और रक्षा करनेसे स्वर्ग होता है, ऐसा निश्चय करते है - [ जीवं घ्रतां] जीवोंको मारनेवालोंकी [ नरकगतिः ] नरकगति होती है, [ अभयप्रदानेन ] अभयदान देनेसे [स्वर्ग: ] स्वर्ग होता है, [ द्वौ पन्थानौ ] ये दोनों मार्ग [ समीपे ] अपने पास [ दर्शितौ ] दिखलाये हैं, [ यत्र ] जिसमें [ रोचते ] तेरी रुचि हो, [ तत्र ] उसीमें [ लग] तू लग जा ॥ भावार्थ - निश्चयकर मिथ्यात्व विषय कषाय परिणामरूप निजघात और व्यवहारनयकर परजीवोके इंद्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छ्वासरूप प्राणोंका विनाश उसरूप परप्राणघात सो प्राणघातियोंके नरकगति होती है । हिंसक जीव नरकके ही पात्र हैं । निश्चयनयकर वीतरागनिर्विकल्प स्वसंवेदन परिणामरूप जो निजभावोंका अभयदान निज जीवकी रक्षा और व्यवहारनयकर परप्राणियोंके प्राणोंकी रक्षारूप अभयदान यह स्वदया परदयास्वरूप अभयदान है, उसके करनेवालोंके स्वर्ग मोक्ष होता है, इसमें संदेह नहीं है । इनमेंसे जो अच्छा मालूम पडे उसे करो । ऐसी श्रीगुरुने आज्ञा की । ऐसा कथन सुनकर कोई अज्ञानी जीव तर्क करता है, कि ये प्राण जीवसे जुदे हैं, कि नहीं ? यदि जीवसे जुदे नहीं हैं, तो जैसे जीवका नाश नहीं है, वैसे प्राणोंका भी नाश नहीं हो सकता ? अगर जुदे हैं, अर्थात् जीवसे सर्वथा भिन्न हैं, तो इन प्राणोंका नाश नहीं हो सकता । इस प्रकारसे T For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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