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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १२६त्याज्येति भावार्थः । तथा चोक्तं निश्चयहिंसालक्षणम्-" रागादीणमणुप्पा अहिंसगत्तेत्ति देसिदं समए । तेसिं चेवुप्पत्ती हिंसेति जिणेहिं णिदिटं ॥" ॥१२५॥ अथ तमेव हिंसादोषं द्रढयति
मारिवि चूरिवि जीवडा जं तुहुँ दुक्खु करीसि । तं तह पासि अणंत-गुणु अवसइँ जीव लहीसि ॥ १२६ ॥ मारयित्वा चूर्णयित्वा जीवान् यत् त्वं दुःख करिष्यसि ।
तत्तदपेक्षया अनन्तगुणं अवश्यमेव जीव लभसे ॥ १२६ ॥ मारिवि इत्यादि । मारिवि बहिर्विषये अन्यजीवान् प्राणिप्राणवियोगलक्षणेन मारयित्वा रिवि हस्तपादायेकदेशच्छेदरूपेण चूरयित्वा । कान् । जीवडा जीवान् निश्चयेनाभ्यन्तरे तु मिथ्यावरागादिरूपतीक्ष्णशस्त्रेण शुद्धात्मानुभूतिरूपनिश्चयप्राणांश्च जं तुहं दुक्खु करीसि यदःखं वं कर्ता करिष्यसि तेषु पूर्वोक्तवपरजीवेषु तं तह पासि अणंतगुणु तद्दःखं तदपेक्षया अनन्तगुणं अवसइं अवश्यमेव जीव हे मूढजीव लहीसि मामोषीति । अत्रायं जीवो मिथ्यावरागादिपरिणतः पूर्वं स्वयमेव निजशुद्धात्मपाणं हिनस्ति बहिर्विषये अन्यजीवानां प्राणघातो कथन जिनशासनमें जिनेश्वरदेवने दिखलाया है । अर्थात् जो रागादिकका अभाव वह स्वदया और जो प्रमादरहित विवेकरूप करुणाभाव वह परदया है । यह स्वदया परदया धर्मका मूलकारण है । जो पापी हिंसक होगा उसके परिणाम निर्मल नहीं हो सकते, ऐसा निश्चय है, परजीव घात तो उसकी आयुके अनुसार है, परन्तु इसने जब परघात विचारा, तब आत्मघाती हो चुका ॥१२५॥ ____ आगे उसी हिंसाके दोषको फिर निंदते हैं, और दयाधर्मको दृढ करते हैं-जीव] हे जीव, [यत् त्वं] जो तू [जीवान्] परजीवोंको [मारयित्वा] मारकर [चूरयित्वा] चूरकर [दुखं करिष्यसि] दुःखी करता है, [तत्] उसका फल [तदपेक्षया] उसकी अपेक्षा [अनंतगुणं] अनंतगुणा [अवश्यमेव] निश्चयसे [लभसे] पावेगा ॥ भावार्थ-निर्दयी होकर अन्य जीवोंके प्राण हरना, परजीवोंका शस्त्रादिकसे घात करना, वह मारना है, और हाथ पैर आदिकसे, तथा लाठी आदिसे परजीवोंको काटना, एकदेश मारना वह चूरना है, यह हिंसा ही महा पापका मूल हैं । निश्चयनयसे अभ्यन्तरमें मिथ्यात्व रागादिरूप तीक्ष्ण शस्त्रोंसे शुद्धात्मानुभूतिरूप अपने निश्चय प्राणोंको हत रहा है, क्लेशरूप करता है, उसका फल अनंत दुःख अवश्य सहेगा । इसलिये हे मूढ जीव, परजीवोंको मत मार, और मत चूर, तथा अपने भाव हिंसारूप मत कर, उज्ज्वल भाव रख । यदि तू जीवोंको दुःख देगा, तो निश्चयसे अनंतगुणा दुःख पावेगा । यहाँ सारांश यह है कि यह जीव मिथ्यात्व रागादिरूप परिणत हुआ पहले तो अपने भावप्राणोंका नाश करता है, परजीवका घात तो हो या न हो, परजीवका घात तो उसकी आयु पूर्ण हो गई हो, तब होता है, अन्यथा नहीं; परन्तु इसने जब परका घात विचारा, तब यह आत्मघाती हो चुका । जैसे गरम लोहेका गोला पकडनेसे अपने हाथ तो निस्संदेह जल जाते हैं । इससे यह निश्चय हुआ, कि जो परजीवोंपर खोटे भाव
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